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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[भगवान् धर्मनाथ के
विपुल सामग्री पाकर भी आप उसमें आसक्त नहीं हुए अपितु अपनी धर्मकरणी में वृद्धि करते रहे । अन्त में सम्पूर्ण प्रारम्भ-परिग्रह का त्याग कर चारित्रधर्म स्वीकार किया और समाधिभाव में काल कर तीसरे देवलोक में महद्धिक देव हुए।
चौथे चक्रवर्ती सनतकुमार भी भगवान् धर्मनाथ के शासन में हुए । प्राप अतिशय रूपवान् और शक्तिसम्पन्न थे । इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नगर के शासक महाराज अश्वसेन शील, शौर्य आदि गुणसम्पन्न थे। उनकी धर्मशीला रानी सहदेवी की कुक्षि में एक स्वर्गीय जीव उत्पन्न हुआ। महारानी ने चौदह शुभ-स्वप्न देखे और स्वप्नों का शभ फल जानकर प्रसन्न हुईं एवं समय पर तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। स्वर्ण के समान कान्ति वाले पुत्र को देखकर बालक का नाम सनत्कुमार रखा।
सनत्कुमार ने बड़े होकर विविध कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया। उसका एक मित्र महेन्द्रसिंह था जो बहुत ही पराक्रमी और गुणवान् था। एक दिन राजकुमार ने महाराज अश्वसेन को भेंट में प्राप्त हुए उत्तम जाति के घोड़े देखे और उनमें जो सर्वोत्तम घोड़ा था, उसकी लगाम पकड़ कर सनतकुमार उस पर प्रारूढ़ हो गया । सनत्कुमार के आरूढ़ होते ही घोड़ा वायुवेग से उड़ता सा बढ़ चला । कुमार ने लगाम खींचकर घोड़े को रोकने का भरसक प्रयत्न किया, पर ज्यों-ज्यों कुमार ने घोड़े को रोकने का प्रयास किया, त्यों-त्यों घोड़े की गति बढ़ती ही गई।
महेन्द्रसिंह आदि सब साथी पीछे रह गये और सनत्कुमार अदृश्य हो गया। राजा अश्वसेन, अपने पुत्र सनत्कुमार के अदृश्य होने की बात सुनकर बडे चिन्तित हए और स्वयं उसकी खोज करने लगे । प्रांधी के कारण मार्ग के चरण-चिह्न भी मिट गये थे।
महेन्द्रसिंह ने महाराज अश्वसेन को किसी तरह पोछे लौटाया और स्वयं एकाकी ही कुमार को खोजने की धुन में निकल पड़ा। इस प्रकार खोज करतेकरते लगभग एक वर्ष बीत गया, पर राजकुमार का कहीं पता नहीं लगा।
सनतकुमार की खोज में विविध स्थानों और वनों में घूमते-घूमते महेन्द्रसिंह ने एक दिन किसी एक जंगल में हंस, सारस, मयूरादि पक्षियों की प्रावाज सनी और शीतल-सुगन्धित वायु के झोंके उस दिशा से पाकर उसका स्पर्श करने लगे तो वह कुछ आशान्वित हो उस दिशा की ओर आगे बढ़ा।
छ दूर जाकर उसने देखा कि कुछ रमणियाँ मधुर-ध्वनि के साथ आमोद-प्रमोद कर रही हैं। उन रमणियों के मध्य एक परिचित युवा को
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