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________________ शासन के तेजस्वी रत्न भगवान् श्री धर्मनाथ २३१ देखकर ज्योंही वह आगे बढ़ा तो अपने चिरप्रतीक्षित सखा सनत्कुमार से उसका साक्षात्कार हो गया। दोनों एक दूसरे को देखकर हर्षविभोर होगये । पारस्परिक कुशलवृत्त पूछने के पश्चात् महेन्द्र ने सनत्कुमार के साथ बीती सारी बात जाननी चाही। राजकूमार ने कहा-“मैं स्वयं कहूं इसकी अपेक्षा विद्याधरकन्या बकुलमति से सुनेंगे तो अच्छा रहेगा।" बकुलमति ने सनत्कुमार के शौर्य की कहानी सुनाते हुए बताया कि किस प्रकार आर्य-पुत्र ने यक्ष की दानवी शक्तियों से लोहा लेकर विजय पाई और किस प्रकार वे सब उनकी (सनत्कुमार की) अनुचरियां बन गई। । सनत्कुमार की गौरवगाथा सुनकर महेन्द्रसिंह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। तदनन्तर उसने राजकुमार को माता-पिता की स्मति दिलाई। फलस्वरूप राजकुमार अपने परिवार सहित हस्तिनापुर की ओर चल पड़े। कुमार के आगमन का समाचार सुनकर महाराज अश्वसेन के हर्ष का पारावार नहीं रहा । उन्होंने बड़े उत्सव के साथ कुमार का नगर-प्रवेश कराया और पुत्र के शौर्यातिरेक को देखकर उसे राज्य-पद पर अभिषिक्त किया और महेन्द्रसिंह को सेनापति बनाकर स्वयं भगवान् धर्मनाथ के शासन में स्थविर मुनि के पास दीक्षित हो गये। न्याय-नीति के साथ राज्य का संचालन करते हुए सनतकुमार की पुण्यकला चतुर्मुखी हो चमक उठी। उनकी प्रायुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ, तब षट्खण्ड की साधना कर उन्होंने चक्रवर्ती-पद प्राप्त किया। सनतकमार की रूपसंपदा इतनी अदभत थी कि स्वर्ग में भी उनकी प्रशंसा होने लगी। एक बार सौधर्म देवलोक में दूसरे स्वर्ग का एक देव पाया तो उसके रूप से वहां के सारे देव चकित हो गये। उन्होंने कालान्तर में इन्द्र से पूछा- "इसका रूप इतना अलौकिक कैसे है ?" इन्द्र ने कहा- "इसने पूर्वजन्म में आयंबिल-वर्द्धमान तप किया था, उसका यह प्रांशिक फल है।" देवों ने पूछा-"क्या ऐसा दिव्य रूप कोई मनुष्य भी पा सकता है ?" इन्द्र ने कहा-"भरतक्षेत्र में सनत्कुमार चक्री ऐसे ही विशिष्ट रूप वाले हैं।" इन्द्र की बात सब देवों ने मान्य की, पर दो देवों ने नहीं माना। वे ब्राह्मण का रूप बनाकर आये और उन्होंने द्वारपाल से चक्रवर्ती के रूप-दर्शन की उत्कंठा व्यक्त की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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