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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
भगवान् धर्मनाथ के
- उस समय सनत्कुमार स्नान-पीठ पर खुले बदन नहाने बैठे थे, ब्राह्मणों की प्रबल इच्छा जानकर चक्री ने कहा- “आने दो ।" ब्राह ण पाये और सनत्कुमार का रूप-लावण्य देखकर चकित हो गये।
चक्री ने कहा-"अभी क्या देख रहे हो ? स्नान के पश्चात जव वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो सभा में बैठू तब देखना ।" . ब्राह्मणों ने कहा-"जैसी आज्ञा ।"
कुछ ही समय में स्नानादि से निवृत्त हो महाराज कल्पवृक्ष की तरह अलंकृत विभूषित हो राजसभा में पाये, उस समय उन दोनों ब्राह्मणों को भी बुलाया गया।
ब्राह्मणों ने देखा तो शरीर का रंग बदल गया था। वे मन ही मन खेद का अनुभव करने लगे।
चक्रवर्ती ने पूछा-“चिन्तित क्यों हैं ?"
ब्राह्मण बोले-“राजन् ! शरीरं व्याधिमंदिरम्” आपके सुन्दर शरीर में कीड़े उत्पन्न हो गये हैं।"
शरीर की इस नश्वरता से सनतकमार संभल गये और विरक्त हो सम्पर्ग आरंभ-परिग्रह का त्यागकर मनि बन गये। दीक्षित होकर वे निरन्तर बेले-बेले की तपस्या करने लगे, रोग आदि प्रतिकल परीषहों में भी विचलित नहीं हए । दीर्घकाल की इस कठिन तपस्या एवं साधना से उनको अनेक लब्धियां प्राप्त हो गई।
एक बार पुनः स्वर्ग में उनकी प्रशंसा हुई और देव उनके धैर्य की परीक्षा करने आया।
देव वैद्य का रूप बनाकर आया और अावाज लगाते हुए मुनि के पास से निकला-“लो दवा, लो दवा । रोग मिटाऊ ।”
मनि ने कहा--"वैद्य ! कौनसा रोग मिटाते हो ? भाव-रोग दूर कर सकते हो तो करो, द्रव्य-रोग की क्या चिन्ता, उसकी दवा तो मेरे पास भी है।"
। यों कहकर मनि ने रक्तस्राव से गलित अंगुली के थूक लगाया और तत्काल ही वह अंगुली कंचन के समान हो गई।
देव भी चकित एवं लज्जित हो मुनि के चरणों में नतमस्तक हो बार-बार क्षमायाचना करते हुए अपने स्थान को चला गया ।
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