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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[पूर्वभव की
राजा के सो जाने पर भी वे संगीत को बन्द नहीं करा सके । रात के अवसान पर जब राजा की नींद भंग हुई तो उसने संगीत को चालू देखा।
क्रोध में भर कर त्रिपृष्ठ शय्यापालक से बोले-"गाना बन्द नहीं करवाया ?" उसने कहा-“देव ! संगीत की मीठी तान में मस्त होकर मैंने गायक को नहीं रोका।" त्रिपृष्ठ ने प्राज्ञाभंग के अपराध से रुष्ट हो शय्यापालक के कानों में शीशा गरम करवा कर डाल दिया।
* इस घोर कृत्य से उस समय त्रिपष्ठ ने निकाचित कर्म का बन्ध किया । और मर कर सप्तम नरक में नेरइया रूप से उत्पन्न हया।' यह महावीर के जीव का उन्नीसवां भव था। बीसवें भव में सिंह और इक्कीसवें भव में चतुर्थ मेरक का नेरइया हुआ । तदनन्तर अनेक भव कर पहली नरक में उत्पन्न हुआ, वहाँ की आयु पूर्ण कर बाईसवें प्रियमित्र (पोट्टिल) चक्रवर्ती के भव में दीर्घकाल तक राज्यशासन करके पोट्टिलाचार्य के पास संयम स्वीकार किया और करोड़ वर्ष तक तप-संयम की साधना की। तेईसवें भव में महाशुक्र कल्प में देव हुआ और चौबीसवें भव में नन्दन राजा के भव में तीर्थंकरगोत्र का बंध किया, जो इस प्रकार है :
छत्रा नगरी के महाराज जितशत्रु के पुत्र नन्दन ने पोट्टिलाचार्य के उपदेश से राजसी वैभव और काम-भोग छोड़ कर दीक्षा ग्रहण की। चौबीस लाख वर्ष तक इन्होंने संसार में भोग-जीवन बिताया और फिर एक लाख वर्ष की संयम पर्याय में निरन्तर मास-मास की तपस्या करते रहे और कर्मशूर से धर्मशूर बनने को कहावत चरितार्थ की । इस लाख वर्ष के संयमजीवन में इन्होंने ग्यारह लाख साठ हजार मास-खमण किये । सब का पारण-काल तीन हजार तीन सौ तैंतीस वर्ष, तीन मास और उन्तीस दिनों का हुमा । तप-संयम मौर अर्हत् आदि बीसों ही बोलों की उत्कट आराधना करते हुए इन्होंने तीर्थंकर-नामकर्म का बन्ध किया, एवं अन्त में दो मास का अनशन कर समाधिभाव में आयु पूर्ण की। पच्चीसवें भव में प्राणत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए।
समवायांग स्त्र के अनुसार प्राणत स्वर्ग से च्यवन कर नन्दन का जीव देवानन्द की कुक्षि में उत्पन्न हना, इसे भगवान का छब्बीसवाँ भव और देवानन्दा की कुक्षि से त्रिशला देवी की कुक्षि में शक्राज्ञा से हरिणेगमेषी देव द्वारा गर्भ-परिवर्तन किया गया. इसे भगवान का सत्ताईसवां भव माना गया है । क्रमशः दो गर्भो में आगमन को पृथक-पृथक भव मान लिया गया है।
१ त्रि० श० पु० च० १०।१।१७८ से १८१
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