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साधना]
भगवान् महावीर
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इस सम्बन्ध में समवायांग सूत्र का मूल पाठ व श्री अभय देव सूरी द्वारा निर्मित वृत्ति का पाठ इस प्रकार है :
“समणे भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणालो छ8 पोटिल्ल भवग्गहरणे एगं वास कोडि सामण्ण परियागं"......"
[ समवायांग, समवाय १३४, पत्र ६८ (१) ] "समणेत्यादि यतो भगवान् प्रोट्टिलाभिधान राजपुत्रो बभूव, तत्र वर्षकोटिं प्रव्रज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः, ततो नन्दनाभिधानो राजसूनुः छत्राग्रनगर्यां जज्ञे इति तृतीयः, तत्र वर्षलक्षं सर्वथा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशमदेवलोके पुष्पोत्तर वरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थस्ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्तब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानाया कुक्षावत्पन्न इति पञ्चमस्ततस्त्र्यशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजस्य त्रिशलाभिधानभार्याया कुक्षाविन्द्रवचनकारिगा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृतस्तीर्थकरतया च जातः इति षष्ठः, उक्तभवग्रहणं हि विनानान्य-द्रवग्रहणं षष्ठं श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातं, यस्माच्च भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्ठच्यते तीर्थकर भवग्रहणात षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति ।"
[ समवायांग, अभय देववृत्ति, पत्र ६८ ] प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत त्रिशष्टि शलाका पुरुष चरित्र, प्राचार्य गगचन्द्रगणि कृत श्री महावीर चरियं, आवश्यक नियुक्ति और आवश्यकमलयगिरिबत्ति में पोट्रिल (प्रियमित्र चक्रवर्ती) से पहले बाईसवां भव मानव के रूप में उत्पन्न होने का उल्लेख कर देवानन्दा के गर्भ में उत्पन्न होने और त्रिशला के गर्भ में संहारण इन दोनों को भगवान् महावीर का सत्ताईसवां भव माना है। पर मूल पागम समवायांग के उपर्युक्त उद्धरण के समक्ष इस प्रकार की अन्य किसी मान्यता को स्वीकार करने का कोई प्रश्न पैदा नहीं होता।
दिगम्बर परम्परा में भगवान् महावीर के ३३ भवों का वर्णन है।'
इतिहास-प्रेमियों की सुविधा हेतु एवं पाठकों की जानकारी के लिये श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों परम्पराओं की मान्यता के अनुसार भगवान महावीर के भव यहाँ दिये जा रहे हैं :
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१ गुग्गभद्राचार्य रचित उत्तरपुराण , पर्व ७८, पृ० ४४४
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