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कठोर संयम-साधना] भगवान् श्री अरिष्टनेमि
४१७ बलराम भृकुटि-विभंग से उसे देखते हुए आगे बढ़ गये ।
देव भी आगे पहुँच गया और एक मत बैल के मुह के पास घास और पानी रख कर उसे खिलाने-पिलाने की चेष्टा करने लगा।
जब बलदेव उस स्थान पर पहँचे तो यह सब देख कर बोले-"भले मनुष्य ! तुम में कुछ बुद्धि भी है या नहीं ? मरा जानवर भी कहीं खाता पीता है ?"
किसान बने हुए उस देव ने कहा--"पृथ्वीनाथ ! मत कृष्ण भोजन पानी ग्रहण करेंगे तो यह बैल भी अवश्य घास चरेगा और पानी पीयेगा।"
इस पर बलराम कुछ नहीं बोले और मार्ग पर आगे बढ़ गए।
इस प्रकार उस देव ने विविध उपायों से बलदेव को समझाने का प्रयास किया, तब अन्त में बलदेव के मन में यह विचार आया-"क्या सचमुच कंसकेशिनिषदन केशव अब नहीं रहे ? क्या जरासन्ध जैसे प्रबल पराक्रमी शत्रु का प्राणहरण करने वाले मेरे भैया कृष्ण परलोकगमन कर चुके हैं, जिस कारण कि ये सब लोग एक ही प्रकार की बात कह रहे हैं ?"
। उसी समय उपयक्त अवसर समझ कर देव अपने वास्तविक स्वरूप में बलदेव के समक्ष प्रकट हुआ और कहने लगा-"बलदेव ! मैं वही आपका सारथि सिद्धार्थ हूं। भगवान की कृपा से संयम-साधना कर मैं देव बना हूं। आपने मुझे मेरी दीक्षा के समय कहा था कि सिद्धार्थ ! यदि देव बन जानो तो मुझे प्रतिबोध देने हेतु अवश्य पाना । आपके उस वचन को याद करके आया हूं । महाराज ! यह ध्र व सत्य और संसार का अपरिवर्तनीय अटल नियम है कि जो जन्म ग्रहण करता है, वह एक न एक दिन अवश्य मरता है । सच बात यह है कि श्रीकृष्ण अब नहीं रहे। आप जैसे महान् और समर्थ सत्पुरुष भी इस अपरिहार्य मृत्यु से विचलित हो मोह और शोक के शिकार हो जायेंगे तो साधारण व्यक्तियों को क्या स्थिति होगी? स्मरण है आपको, प्रभ नेमिनाथ ने द्वारिकादाह के लिये पहले ही फरमा दिया था। वह भीषण लोमहर्षक काण्ड श्रीकृष्ण और आपके देखते-देखते हो गया।"
"जो बीत चका, उसका शोक व्यर्थ है। अब आप अरणगार-धर्म को ग्रहण कर आत्मोद्धार कीजिए, जिससे फिर कभी प्रिय-वियोग का दारुण दुःख सहना ही नहीं पड़े।
सिद्धार्थ की बातों से बलदेव का व्यामोह दूर हुआ। उन्होंने ससम्मान श्रीकृष्ण के पार्थिव शरीर का अन्त्येष्टि संस्कार किया।
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