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________________ ४१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [बलदेव की विरक्ति और उसी समय भगवान अरिष्टनेमि ने बलराम की दीक्षा ग्रहण करने की अन्तर्भावना जान कर अपने एक जंघाचारण मुनि को बलराम के पास भेजा । बलराम ने प्राकाश-मार्ग से पाये हए मुनि को प्रणाम किया और तत्काल उनके पास दीक्षा ग्रहण कर श्रमण धर्म स्वीकार किया और कठोर तपस्या की ज्वाला में अपने कर्मसमूह को इंधन की तरह जलाने लगे। कालान्तर में उन हलायध मुनि ने परम संवेग और वैराग्य भाव से षष्ठम अष्टम, मासक्षमणादि तप करते हए गरु-आज्ञा से एकल विहार स्वीकार किया। वे ग्राम नगरादि में विचरण करते हुए जिस स्थान पर सूर्य अस्त हो जाता वहीं रात भर के लिए निवास कर लेते । किसी समय मासोपवास की तपस्या के पारण हेतु बलराम मुनि ने एक नगर में भिक्षार्थ प्रवेश किया । उनका तप से शुष्क शरीर भी अप्रतिहत सौन्दर्ययुक्त था। धूलि-धूसरित होने पर भी उनका तन बड़ा मनोहर, कान्तिपूर्ण और लुचितकेश-सिर भी बड़ा मनोहर प्रतीत हो रहा था । बलराम के अदभत रूप-सौन्दर्य से प्राकृष्ट नगर का सुन्दरी-मण्डल भिक्षार्थ जाते हुए महषि बलदेव को देख कुलमर्यादा को भूल कर उनके प्रति हाव-भाव बताने लगा । कप-तट पर एक पुर-सुन्दरी ने तो मुनि की ओर एकटक देखते हुए कुए से जल निकालने के लिए कलश के बदले अपने शिशु के गले में ही रज्जु डाल दी। वह अपने शिशु को कुएं में डाल ही रही थी कि पास ही खड़ी एक अन्य स्त्री ने उसे-"अरे क्या अनर्थ कर रही है" यह कहकर सावधान किया । ___ लोक-मुख से यह बात सुनकर महामुनि बलराम ने सोचा-"अहो कैसो मोह की छलना है, जिसके वशीभूत हो हमारे जैसे मुण्डित सिर वालों के पीछे भी ये ललनाएँ ऐसा कार्य करती हैं। पर इनका क्या दोष, मेरे ही पूर्वकृत कर्मों की परिणति से पूदगलों का ऐसा परिणमन है। ऐसी दशा में अब भिक्षा हेतू नगर या ग्राम में मुझे प्रवेश नहीं करना चाहिए । आज से मैं वन में ही निवास करूंगा।" ऐसा विचार कर मुनि बलराम बिना भिक्षा ग्रहण किए ही वन की ओर लौट गये और तुगियागिरी के गहन वन में जाकर घोर तपस्या करने लगे। १ (क) ताव य णहंगणाप्रो समुद्देस समागमो भयवनो सयासाम्रो एक्को विज्जाहर समणो। दटूण य त......"पडिवण्णा रामेण तस्सन्तिए दिक्खा । चिउवन महापुरिस चरियं, पृष्ठ २०४] (ख) दीक्षां जिघृक्षु रामं च, ज्ञात्वा श्री नेम्यपि द्रुतम् । विद्याधरमृषि प्रेषीदेकमैकः कृपालुषु ॥३६॥ त्रि. श. पु. च., ८।१२ २ ......."हा ! हयासि त्ति हयासे ! भणमारणेण संवोहिया [चउवन म. पु. च., पृ २०८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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