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कठोर संयम-साधना]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
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शत्रु राजाओं ने हलधर का एकाकी वनवास जान कर उन्हें मारने की तैयारी की, परन्तु सिद्धार्थ देव की रक्षा-व्यवस्था से वे वहां नहीं पहुँच सके ।
मुनि बलराम वन में शान्त भाव से तप आराधन करने लगे। .
उनके तपः प्रभाव से वन्य प्राणी सिंह और मग परस्पर का वैर भूल उनके निकट बैठे रहते। एक दिन वे सर्य की अोर मह किये कायोत्सर्ग मद्रा में ध्यानस्थ खड़े थे। उस समय कोई वन-छेदक वक्ष काटने हेतु उधर आया और उसने मुनि को देखकर भक्ति सहित प्रणाम किया। तपस्वी मुनि को धन्य-धन्य कहते हुए पास के वृक्षों में से एक वृक्ष को काटने में जुट गया।
भोजन के समय अधकटे वक्ष के नीचे छाया में वह भोजन करने बैठा । उसी समय अवसर देख मुनि शास्त्रोक्त विधि से चले । शुभ अध्यवसाय से एक हरिण भी यह सोच कर कि अच्छा धर्म-लाभ होगा, महामुनि का पारणा होगा, मुनि के आगे-आगे चला।
वृक्ष काटने वाले ने ज्योंही मुनि को देखा तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ और बड़ी श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम के साथ मुनि को अपने भोजन में से भिक्षा देने लगा। 'काकतालीय' न्याय से उसी समय बड़े तीव्र वेग से वायु का झोंका आया और वह अधकटा विशाल वृक्ष मुनि बलराम, उस श्रद्धावनत सुथार और हरिण पर गिर पड़ा शुभ अध्यवसाय में मुनि बलराम, सुथार और हरिण तीनों एक साथ काल कर ब्रह्मलोक-पंचम कल्प में देव रूप से उत्पन्न हुए।
मनि की तपस्या के साथ हरिण और सुथार की भावना भी बड़ी उच्चकोटि की रही। मग ने बिना कुछ दिये शुभ-भावना के प्रभाव से पंचम स्वर्ग की प्राप्ति कर ली।
महामुनि थावच्चापुत्र द्वारिका के समृद्धिशाली श्रेष्ठिकुलों में थावच्चापुत्र का प्रमुख स्थान था । इनकी अल्पाय में ही इनके पिता के दिवंगत हो जाने के कारण कुल का साग कार्यभार थावच्चा गाथा-पत्नी चलाती रही। उसने अपने कुल की प्रतिष्ठा और धाक उसी प्रकार जमाये रखी जैसी कि श्रेष्ठी ने जमाई थी। थावच्चा गाथा. पत्नी की लोक में प्रसिद्धि होने के कारण उसके पुत्र की भी (थावच्चापुत्र की भी) थावच्चापुत्र के नाम से ही प्रसिद्धि हो गई। १ (क) ....""सुभभावणोवगयमाणसा य समुप्पण्णा बम्भलोयकप्पम्मि"...."
___ [चउवन महा. पु. चरियं. पृ. २०६] (ख) ते त्रयस्तरुणा तेन, पतितेन हता मृताः । पद्मोत्तरविमानान्तब्रह्मलोकेऽभवन् सुराः ।।७०।।
[त्रिषष्टि शलाका पु. च., पर्व ८, मर्ग ११]
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