________________
जैन धर्म का मौलिक इतिहास (बलदेव की विरक्ति मौर इस प्रकार सोचकर देव ने विभिन्न प्रकार के दृष्टान्तों से बलराम को समझाने का प्रयत्न किया।
उसने बढ़ई का वेष बना कर, जिस पथ पर बलदेव जा रहे थे, उसी पथ में मागे बढ़ विकट पर्वतीय ऊंचे मार्ग को पार कर समतल भूमि में चकनाचूर हुए रथ को ठीक करने का उपक्रम प्रारम्भ किया। जब बलदेव उसके पास पहुंचे तो उन्होंने बढ़ई से कहा-"क्यों व्यर्थ प्रयास कर रहे हो ? दुलंध्य पर्वतीय विकट मार्ग को पार करके जो रथ समतल भूमि में टूट गया, वह अब भला क्या काम देगा?"
बढ़ई बने देव ने अवसर देख तत्काल उत्तर दिया-"महाराज ! जो कष्ण तीम सौ साठ (३६०) भीषण युद्धों में नहीं मरे और अन्त में बिना किसी युद्ध के ही मारे गये, वे जीवित हो जायेंगे तो मेरा यह विकट दुलंध्य गिरि-पथों को पार कर समतल भूमि में टूटा हुमा रथ क्यों नहीं ठीक होगा ?"
"कौन कहता है कि मेरा प्राणप्रिय भाई कष्ण मर गया है? यह तो प्रगाढ़ निद्रा में सोया हुआ है। तुम महामूढ़ हो।" बलदेव गरजकर बोले और पथ पर मागे की ओर बढ़ गये।
देव उसी पथ पर आगे पहुंच गया और माली का रूप बनाकर मार्ग में ही निर्जल भूमि की एक शिला पर कमल उगाने का उपक्रम करने लगा।
__वहाँ पहुँचने पर बलदेव ने उसे देख कर कहा-"क्या पागल हो गये हो जो निर्जल स्थल में और वह भी पाषारण-शिला पर कमल लगा रहे हो। भला शिला पर भी कभी कमल उगा है ?"
माली बने देव ने कहा-"महाराज! मृत कृष्ण जीवित हो जायेंगे तो यह कमल भी इस शिला पर खिल जायगा।"
बलदेव क्रोधपूर्वक अपना उपर्युक्त उत्तर दोहराते हुए आगे बढ़ गये ।
देव ने भी अपना प्रयास नहीं छोड़ा और वह राह पर आगे पहुँच कर जले हुए वृक्ष के अवशेष ठूठ को पानी से सींचने लगा।
बलदेव ने जब उस जले हए सखे ठंठ को पानी से सींचते हए देखा तो कहने लगे-"अरे तुम विक्षिप्त तो नहीं हो गये हो, यह जला हुमा ठूठ भी कहीं जल सींचने से हरा हो सकता है ?"
उस छद्म-वेषधारी देव ने कहा-"महाराज ! जब मरे हुए कृष्ण जीवित हो सकते हैं तो यह जला हुआ वक्ष क्यों नहीं हरा होगा ?"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org