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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[नामकरण
दिया गया हो, यह नितान्त प्रसंभव सा प्रतीत होता है । क्षत्रियाणी की तरह श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों परम्परा के ग्रन्थों में देवी रूप में भी त्रिशला का उल्लेख किया गया है। अतः उसे रानी समझने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । महावीर चरियं', त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र और दशभक्ति ग्रन्थ' इसके लिए द्रष्टव्य हैं।
सिद्धार्थ को इक्ष्वाकुवंशी और गोत्र से काश्यप कहा गया है। कल्पसूत्र और प्राचारांग में सिद्धार्थ के तीन नाम बताये गये हैं : (१) सिद्धार्थ, (२) श्रेयांस और (३) यशस्वी। त्रिशला वासिष्ठ गोत्रीयाथीं, उनके भी तीन नाम उल्लिखित हैं-(१) त्रिशला, (२) विदेहदिन्ना और (३) प्रियकारिणी। वैशाली के राजा चेटक की बहिन होने से ही इसे विदेहदिन्ना कहा गया है।
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नामकरण नामकरण के सम्बन्ध में आचारसंग में निम्नलिखित उल्लेख है-निवत्तदसाहंसि वुक्तंसि सुइभूयंसि विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उक्खडावित्ति २ ता मित्तनाइसयणसंबंधिवग्गं उवनिमंतंति, मित्त० उवनिमंतित्ता बहवे समरणमाहरणकिवरणवरिणमगाहिं भिच्छुडग पंडरगाईण विच्छडडंति विग्गोविति विस्सारिणति, दायारेसु दाणं, पज्जभाइंति, विच्छड्डित्ता....."मित्तनाइसयणसंबंधिवग्गं भुजाविति मित्त० भुजावित्ता मित्त० वग्गेण इमेयारूवं नामधिज्जं कारविति-जनो रणं पमिइ इमे कुमारे तिसलाए ख० कुच्छिसि गम्भे आहए तो रणं पमिइ इमं कुलं विपुलणं हिरण्णेणं सुवण्णेणं धणेणं धन्नेणं माणिक्केणं मुत्तिएणं संखसिलप्यवालेणं, अईव अईव परिवड्ढइ, ता होउ णं कुमारे बद्धमारणे।
दश दिन तक जन्म-महोत्सव मनाये जाने के बाद राजा सिद्धार्थ ने मित्रों और बन्धुजनों को आमन्त्रित कर स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों से उन सबका सत्कार करते हुए कहा-"जब से यह शिश हमारे कुल में पाया है तबसे धन, धान्य, कोष, भण्डार, बल, वाहन प्रादि समस्त राजकीय साधनों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई. १ (क) तस्स घरे तं साहर, तिसला देवीए कुच्छिसि ।५१॥ [महावीर चरियं, पृ. २८)
(ख) सिद्धत्थो य नरिंदो, तिसला देवी य रायलोप्रो य ।६। [महावीर चरियं ३३] २ दधार त्रिशला देवी, मुदिता गर्भमद्भुतम् ।३३।
देव्या पाश्र्वे च भगवत्प्रतिरूपं निधाय सः ॥५५॥ उवाच त्रिशला देवी, सदने नस्त्वमागमः ।१४१[त्रिषष्टि शलाका, ५० १०, सर्ग २] ३ देव्या प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान् संप्रदर्श्य विभुः ।।।
[दशभक्ति, पृ० ११६] ४ कल्पसूत्र, १०५।१०६ सूत्र । प्राचारांग भावनाध्ययन ५ (अ) कल्पसूत्र, सूत्र १०३ । प्राचारांग सूत्र, श्रु० २, अ० १५
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