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कुलकर : एक विश्लेषण] कालचक्र पीर कुलकर अधिक प्रभावशाली विमलवाहन को अपना नेता बना लिया। विमलवाहन ने सब के लिये मर्यादा निश्चित की और मर्यादा के उल्लंघन का अपराध करने पर दण्ड देने की घोषणा की।
जब कोई मर्यादा का उल्लंघन करता तब "हा" - तूने क्या किया, ऐसा कह कर अपराधी को दंडित किया जाता । उस समय का लज्जाशील और स्वभाव से संकोचशील प्रकृति वाला मानव इस दंड को सर्वस्वहरण जैसा कठोर दंड मानता और एक बार का दंडित अपराधी व्यक्ति, दुबारा फिर कभी गलती नहीं करता। इस प्रकार चिरकाल तक "हा" कार की दंड नीति से व्यवस्था चलती रही। ____ कालान्तर में विमलवाहन की चन्द्रजसा युगलिनी से दूसरे कुलकर चक्षुष्मान का युगल के रूप में जन्म हमा। इसी क्रम से तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें कुलकर हए । तत्कालीन मनुज कूलों की व्यवस्था करने से वे कुलकर कहलाये। विमलवाहन और दूसरे कुलकर चक्षुष्मान तक 'हाकार" नीति चलती रही। तीसरे और चौथे कुलकर तक "माकार" नीति एवं पांचवें, छठे और सातवें कुलकर तक "धिक्कार" नीति से व्यवस्था चलती रही।
जब अपराधी को "हा" कहने से काम नहीं चलता तब जरा उच्च स्वर में कहा जाता "मा" यानि मत करो। इससे लोग अपराध करना छोड़ देते । समय की रूक्षता और रवि की कठोरता से जब लोग 'हाकार' और 'माकार' नीति के प्रभावक्षेत्र से बाहर हो चले तब धिक्कार' नीति का आविर्भाव हुआ । पिछले ३ कुलकरों के समय यही नीति चलती रही।'
कुलकर : एक विश्लेषण अवसर्पिणी काल के तीसरे पारे के पिछले तीसरे भाग में जब समय के प्रभाव से भूमि की उर्वरकता एवं सत्व का शनैः शनैः ह्रास होने के कारणकल्पवृक्षों ने आवश्यक परिमारण में फल देना बन्द कर दिया, तब केवल कल्पवृक्षों पर आश्रित रहने वाले उन लोगों में उन वृक्षों पर स्वामित्व भावना का विवाद होने लगा। अधिक से अधिक कल्पवृक्षों को अपने अधिकार में रखने की प्रवृत्ति उनमे उत्पन्न होने लगी। कल्पवृक्षों पर स्वामित्व के इस प्रश्न को लेकर जब कलह व्यापक रूप धारण करने लगा और इतस्ततः अव्यवस्था उग्र रूप धारण करने लगी, तब कुलकर व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुअा।
वन-विहारी उन स्वतन्त्र मानवों ने एकत्र होकर छोटे-छोटे कुल बनाये और प्रतिभाशाली विशिष्ट पुरुष को अपना नेता स्वीकार किया। कुल की सुव्यवस्था करने के कारण उन कुलनायकों को कुलकर कहा जाने लगा। आदि पुराण और वैदिक साहित्य मनस्मति आदि में मननशील होने से इनको मन १ (क) हक्कारे, मक्कारे धिक्कारे चैव [प्रा०नि०, पृ० १५६ (२)] (ख) दंडं कुम्वन्ति 'हाकारं' [ति० पन्नत्ति, गा० ४५.२] (ग) जम्बूदीप प्रज्ञप्ति
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