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[ कुलकर: एक विश्लेषण
जैन धर्म का मौलिक इतिहास कहा गया और जैन साहित्य की परिभाषा में कुल की व्यवस्था करने के कारण कुलकर नाम दिया गया । कुलकरों की व्यवस्था प्रोर कार्यक्षेत्र की दृष्टि से मतैक्य होने पर भी कुलकरों की संख्या के सम्बन्ध में शास्त्रों में मतभेद है । जैनागम - स्थानांग, समवायांग तथा भगवती में सात कुलकर बताये गये हैं और आवश्यक चूरिंग एवं प्रावश्यक निर्युक्ति में भी उसी के अनुरूप सात कुलकर मान्य किये गये हैं । स्थानांग, समवायांग, आवश्यक निर्युक्ति आदि के अनुसार सात कुलकरों के नाम इस प्रकार हैं :
(१) विमलवाहन, (२) चक्षुष्मान्, (३) यशोमान्, (४) प्रभिचन्द्र, (५) प्रसेनजित्, (६) मरुदेव और (७) नाभि । जैसा कि कहा है :"जम्बूद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे श्रसप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्या । तं जहा :
" पढमित्थ विमलवाहण, चक्खुमं जसमं चउत्थमभिचन्दे ततो अ पसेराई पुरण, मरुदेवे चेव नाभी य ।।'
महापुराण में चौदह औौर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में १५ कुलकर बताये गये हैं । पउम चरियं में - ( १ ) सुमति, (२) प्रतिश्रुति, (३) सीमंकर (४) सीमंघर (५) क्षेमंकर, (६) क्षेमंघर, (७) विमलवाहन, (८) चक्षुष्मान्, (६) यशस्वी, (१०) अभिचन्द्र, (११) चन्द्राभ, (१२) प्रसेनजित्, (१३) मरुदेव भौर (१४) नाभि, इस प्रकार चौदह नाम गिनाये हैं; जब कि महापुराण में पहले प्रतिश्रुत, दूसरे सन्मति, तीसरे क्षेमकृत्, चौथे क्षेमंधर, पांचवें सीमंकर घौर छठे सीमंधर, इस प्रकार कुछ व्युत्क्रम से संख्या दी गई है । विमलवाहन से भागे के नाम दोनों में समान हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में पउम चरियं के १४ नामों के साथ ऋषभ को जोड़कर पन्द्रह कुलकर बतलाये गये हैं- जो अपेक्षा से संख्या भेद होने पर भी बाधक नहीं है। चौदह कुलकरों में प्रथम के छः भौर ग्यारहवें चन्द्राभ के अतिरिक्त सात नाम वे ही स्थानांग के अनुसार हैं। संभव है प्रथम के छः कुलकर उस समय के मनुष्यों के लिये योगक्षेम में मार्गदर्शक मात्र रहे हों ।
१ स्थानांग, ७ स्वरमण्डलाधिकार - भाव० पूर्ण पृ० २८-२९= प्राव० नि० ना० १५२= समवायांग
૧ भावः प्रतिश्रुतिः प्रोक्तः, द्वितीयः सन्मतिर्मतः । तृतीयः क्षेमकुशाम्ना, चतुर्थः क्षेगघृन्मनुः ॥ सीमकृत्पंचमो शेयः, षष्ठः सीमघुदिष्यते । ततो विमलवाहांश्चक्षुष्मानष्टमो मतः ॥ यशस्वान्नवमस्तस्मान्नाभिचन्द्रोऽप्यनन्तरः 1 चन्द्राभोऽस्मात्परं शेयो, मरुदेवस्ततः परम् ॥ प्रसेनजित् परं तस्मान्नामिराजश्चतुर्दश: ।
[ महापुराण जिनसेनाचार्य, प्रथम भाग, पर्व ३, श्मो० २२१ - २३२, पृष्ठ ६६ ]
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