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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती
अचानक एक तेजस्वी युवक को सम्मुख देखते ही वह अबला भयविह्वल हो गई और भयाक्रान्त जिज्ञासा के स्वर में बोली-"आप कौन हैं ? आपके यहाँ पाने का प्रयोजन क्या है ?"
ब्रह्मदत्त ने उसे निर्भय करते हुए कहा-“सुभ्र ! मैं पाँचाल-नरेश ब्रह्म का पुत्र ब्रह्मदत्त हूँ............।"
ब्रह्मदत्त अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि वह कन्या उसके पैरों में गिर कर कहने लगी- "कुमार ! मैं आपके मामा पुष्पचूल की पुष्पवती नामक पुत्री हूँ, जिसे वाग्दान में आपको दिया गया था। मैं आपसे विवाह की बड़ी ही उत्कण्ठा से प्रतीक्षा कर रही थी कि नाटयोन्मत्त नामक विद्याधर अपने विद्याबल से मेरा हरण कर मुझे यहाँ ले आया । वह दुष्ट मुझे अपने वश में करने के लिए पास ही की बाँसों की झाड़ी में किसी विद्या की साधना कर रहा है । मेरे चिर अभिलषित प्रिय ! अब मैं आपकी शरण में हूँ। आप ही मेरी मझधार में डूबती हुई जीवन-तरणी के कर्णधार हो।"
कुमार ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा-"वह विद्याधर अभी-अभी मेरे हाथों अज्ञान में ही मारा गया है । अब मेरी उपस्थिति में तुम्हें किसी प्रकार का भय नहीं है।"
__ तदनन्तर ब्रह्मदत्त और पुष्पवती गान्धर्व विधि से विवाह के सूत्र में बँध गये और इस प्रकार चिर-दुःख के पश्चात् फिर सुख के झूले में झूलने लगे।
मधु-बिन्दु के समान मधुर सुख की वह एक रात्रि मधुरालाप और प्रणयकेलि में कुछ क्षणों के समान ही बीत गई । फिर प्रिय-वियोग की वेला आ पहुंची।
गगन में धनरव के समान घोष को सुन कर पुष्पवती ने कहा-"प्रियतम ! विद्याधर नाट्योन्मत्त की खण्डा और विशाखा नाम की दो बहिनें आ रही हैं। इन अबलाओं से तो कोई भय नहीं, पर अपने प्रिय सहोदर की मृत्यु का समाचार पाये अपने विविध-विद्याओं से सशक्त विद्याधर बन्धों को ले आईं तो अनर्थ हो जायगा । अतः आप थोड़ी देर के लिए छिप जाइये । मैं बातों ही बातों में इन दोनों के अन्तर में आपके प्रति आकर्षण उत्पन्न करने का प्रयास करती हूँ। यदि उनकी क्रोधाग्नि को शान्त होते न देखा तो मैं श्वेत पताका को हिलाकार आपको यहाँ से भाग जाने का संकेत करूंगी और यदि वे मेरे द्वारा वरिणत आपके अलौकिक गरण सौन्दर्यादि पर आसक्त हो गई तो मैं लाल पताका को फहराऊँगी, उस समय आप निश्शंक हो हमारे पास चले आना।"
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