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________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ४४७ यह कह कर पुष्पवती उन विद्याधर कन्याओं की अगवानी के लिए चली गई। कुमार एकटक उस ओर देखता रहा । उसने देखा कि संकट की सूचक श्वेत-पताका हिल रही है । ब्रह्मदत्त वहाँ से वन की ओर चल पड़ा। एक विस्तीर्ण सघन वन को पार करने पर उसने स्वच्छ जल से भरे एक बड़े जलाशय को देखा । मार्ग की थकान मिटाने हेतु वह उसमें कूद पड़ा और जी भर जल-क्रीड़ा करने के उपरान्त तैरता हुआ दूसरे तट पर जा पहुँचा । वहाँ उसने पास ही के एक लता-कुञ्ज में फूल चुनती हुई एक अत्यन्त सुकुमार सर्वांग-सुन्दरी कन्या को देखा । ब्रह्मदत्त निनिमेष दृष्टि से उसे देखता ही रह गया क्योंकि उसने इतनी रूपराशि धरातल पर कभी नहीं देखी थी। वह अनुपम सुन्दरी भी तिरछी चितवन से उस पर अमृत वर्षा सी करती हुई मन्दमन्द मुस्कुरा रही थी । ब्रह्मदत्त ने देखा कि वह वनदेवी सी बाला उसी की ओर इंगित करते हए अपनी सखी से कुछ कह रही है। उसने यह भी देखा कि उस पर विस्फारित नेत्रों से एकबारगी ही अमृत की दोहरी धारा बहा कर खुशी से मस्त मयूर सी नाचती हुई वह लता-कुञ्ज में अदृश्य हो गई। उसे पुनः देखने के लिए ब्रह्मदत्त की आँखें बड़ी बेचैनी से उसी लता-कुञ्ज पर न मालूम कितनी देर तक अटकी रहीं, इसका उसे स्वयं को ज्ञान नहीं। एकदम उसके पास ही में हुई नपुर की झंकार से उसकी तन्मयता जब टूटी तो ताम्बल, वस्त्र और आभूषण लिए उस सुन्दरी की दासी को अपने संमुख खड़े पाया। दासी ने कहा-"अभी थोड़ी ही देर पहले आपने जिन्हें देखा था उन राजकुमारीजी ने अपनी इष्ट सिद्धि हेतु ये चीजें आपके पास भेजी हैं और मुझे यह भी आदेश दिया है कि मैं आपको उनके पिताजी के मंत्री के घर पहुंचा दूं।" ब्रह्मदत्त वनों के वनचरों जैसे जीवन से ऊब चुका था, अतः प्रसन्न होते हए वह दासी के पीछे-पीछे चल पड़ा। राजकीय अतिथि के रूप में उसका खूब प्रतिथि-सत्कार हुआ और वहाँ के राजा ने अपनी पुत्री श्रीकान्ता का उसके साथ बड़ी धूमधाम के साथ विवाह कर दिया । ब्रह्मदत्त एक बार फिर दुःखी से सुखी बन गया । वह वहाँ कुछ दिन बड़े आमोद-प्रमोद के साथ आनन्दमय जीवन बिताता रहा। श्रीकान्ता का पिता वसन्तपुर का राजा था, पर गृह-कलह के कारण वह वहाँ से भाग कर चौर-पल्ली का राजा बन गया । वह लट-पाट से अपने कुटुम्ब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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