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________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ] भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि के तुरन्त के पद चिह्न देखे | यौवन का मद उस पर छा गया। हाथी को छकाने के लिए उसके भुजदण्ड फड़क उठे । तापसों द्वारा मना किये जाने पर भी हाथी के पदचिह्नों का अनुसरण करता हुआ वह उन तपस्वियों से बहुत दूर निकल गया । अन्ततोगत्वा उसने, अपनी सूंड से एक वृक्ष को उखाड़ते हुए मदोन्मत्त जंगली हाथी को देखा और उससे जा भिड़ा । हाथी क्रोध से चिंघाड़ता हुआ ब्रह्मदत्त पर झपटा । ब्रह्मदत्त ने अपने ऊपर लपकते हुए हाथी के सामने अपना उत्तरीय फेंका और ज्योंही हाथी अपनी सूंड ऊँची किये हुए उस वस्त्र की ओर दौड़ा त्योंही ब्रह्मदत्त अवसर देख उछला और हाथी के दाँतों पर पैर रख पीठ पर सवार हो गया । ४४५ इस प्रकार हाथी से वह बड़ी देर तक क्रीड़ाएँ करता रहा । उसी समय काली मेघ घटाएँ घुमड़ पड़ीं और मूसलाधार वृष्टि होने लगी । वर्षा से भीगता हुआ हाथी चिंघाड़ कर भागा । प्रत्युत्पन्नमति ब्रह्मदत्त एक विशाल वृक्ष की शाखा को पकड़ कर वृक्ष पर चढ़ गया । वर्षा कुछ मन्द पड़ी पर घनी मेघ- घटाओं के कारण दिशाएँ धुंधली हो चुकी थीं । ब्रह्मदत्त वृक्ष से उतर कर आश्रम की ओर बढ़ा, पर दिग्भ्रान्त हो जाने के कारण दूसरे ही वन में निकल गया । इधर-उधर भटकता हुआ वह एक नदी के पास आया । उस नदी को भुजाओं से तैर कर उसने पार किया और नदी तट के पास ही उसने एक उजड़ा हुआ ग्राम देखा । ग्राम में आगे बढ़ते हुए उसने बांसों की एक घनी झाड़ी के पास एक तलवार और ढाल पड़ी देखी । उसकी मांसल भुजाएँ अभी और श्रम करना चाहती थीं। उसने तलवार म्यान से बाहर कर बांसों की झाड़ी को काटना प्रारम्भ किया कि बाँसों की झाड़ी को काटतेकाटते उसने देखा कि उसकी तलवार के वार से कटा एक मनुष्य का मस्तक एवं धड़ उसके सम्मुख तड़फड़ा रहे हैं। उसने ध्यान से देखा तो पता चला कि कोई व्यक्ति बाँस पर उल्टा लटके किसी विद्या की साधना कर रहा था । उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई कि उसने व्यर्थ ही साधना करते हुए एक युवक को मार दिया है । पश्चात्ताप करता हुआ ज्योंही वह आगे बढ़ा तो उसने एक रमणीय उद्यान में एक भव्य भवन देखा । कुतूहलवश वह उस भवन की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा । ऊपर चढ़ते हुए उसने देखा कि ऊपर के एक सजे हुए कक्ष में कोई अपूर्व सुन्दरी कन्या पलंग पर चिंतित मुद्रा में बैठी है । आश्चर्य करते हुए वह उस 'बाला के पास पहुँचा और पूछने लगा - "सुन्दरी ! तुम कौन हो और इस निर्जन भवन में एकाकिनी शोकमग्न मुद्रा में क्यों बैठी हो ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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