SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती वरधनु “अभी लाया", कह कर पानी लाने दौड़ा । वह पानी लेकर लौट ही रहा था कि दीर्घराज के घुड़सवारों ने उसे आ घेरा और " कहां है ब्रह्मदत्त ? बता कहां है ब्रह्मदत्त ?” कहते हुए वरधनु को निर्दयतापूर्वक पीटने लगे । ४४४ ब्रह्मदत्त ने देखा, पिटा जाता हुआ वरधनु उसे भाग जाने का संकेत कर रहा है । घोर दारुण दुखों से पीड़ित प्यासे ब्रह्मदत्त ने देखा उसके प्राणों के प्यासे दुष्ट दीर्घ के सैनिक यमदूत की तरह उसके सिर पर खड़े हैं । वह घने वृक्षों और झाड़ियों की प्रोट में घुस कर भागने लगा । कांटों से बिंध कर उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया, प्यास से पीड़ित, प्रारणों के भय से पीड़ित, प्रिय साथी के करालकाल के गाल में पड़ जाने के शोक से पीड़ित, प्रथक थकान से केवल पांव ही नहीं रोम-रोम पीड़ित, कोई पारावर ही नहीं था पीड़ाओं का, फिर भी प्रारणों के जाने के भय से भयभीत भागा ही चला जा रहा था ब्रह्मदत्तक्योंकि प्राण सबको सर्वाधिक प्रिय होते हैं । जब निरन्तर तीन दिन तक भागते-भागते दुःख और पीड़ा चरम सीमा तक पहुँच चुके तो परिवर्तन अवश्यंभावी था । अत्यन्त दु:खी अवस्था में पहुँचे ब्रह्मदत्त ने वन में एक तापस को देखा । वह उसे अपने आश्रम में कुलपति के पास ले गया । कुलपति ने ब्रह्मदत्त के धूलिधूसरित तन की तेजस्विता और वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का लांछन देख साश्चर्य उससे उस दशा में वन में आने का कारण पूछा । ब्रह्मदत्त से सारा वृत्तान्त सुनते ही आश्रम के कुलपति ने उसे अपने हृदय से लगाते हुए कहा – “कुमार ! तुम्हारे पिता महाराज ब्रह्म मेरे बड़े भाई के तुल्य थे । इस आश्रम को तुम अपना घर ही समझो और बड़े श्रानन्द से यहाँ रहो ।” ब्रह्मदत्त वहाँ रहता हुआ कुलपति के पास विद्याध्ययन करने लगा । कुलपति ने कुशाग्रबुद्धि ब्रह्मदत्त को सब प्रकार की शस्त्रास्त्र विद्याओं का अध्ययन कराया और उसे धनुर्वेद, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र व वेद-वेदांग का पारंगत विद्वान् बना दिया । अब वह प्रलम्ब बाहु, उन्नत तेजस्वी भाल, विशाल वक्ष, वृषस्कन्ध, पुष्टमांसल पेशियों से शरीर की सात धनुष ऊँचाई वाला पूर्ण युवा हो चुका था । उसके रोम-रोम से तेज और प्रोज टपकने लगे । एक दिन ब्रह्मदत्त कुछ तपस्वियों के साथ कन्द, मूल, फल-फूलादि लेने जंगल में निकल पड़ा । वन में प्रकृति-सौन्दर्य का निरीक्षण करते हुए उसने हाथी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy