SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि इस तरह वेश बदलकर वे ग्राम में घुसे । एक ब्राह्मण उन्हें अपने घर ले गया और बड़े सम्मान एवं प्रेम के साथ उसने उन्हें भोजन करवाया । भोजनोपरान्त गृहस्वामिनी ब्राह्मणी ब्रह्मदत्त के मस्तक पर अक्षतों की वर्षों करती हुई अपनी परम सुन्दरी पुत्री को साथ लिये ब्रह्मदत्त के सम्मुख हाथ जोड़े खड़ी हो गई । दोनों मित्र एक-दूसरे का मुँह देखते ही रह गये | 1 ४४३ वरधनु ने कृत्रिम आश्चर्यद्योतक स्वर में कहा - " देवि ! इस अनाडी भिक्षुक को अप्सरा सी अपनी यह कन्या देकर क्यों गजब ढा रही हो ! तुम्हारा यह कृत्य तो गौ को भेड़िये के गले में बांधने के समान मूर्खतापूर्ण है ।" गृहस्वामी ब्राह्मण ने उत्तर दिया- "सौम्य ! भस्मी रमा लेने से भी कहीं भाग्य छुपाया जा सकता है ? मेरी इस सर्वोत्तम गुरण सम्पन्ना पुत्री बन्धुमती का पति इन पुण्यशाली कुमार के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता क्योंकि इस कन्या के चक्रवर्ती की पत्नी होने का योग है । निमित्तज्ञों ने मुझे इस कन्या के वर की जो पहचान बताई है, उस महाभाग को मैंने आज सौभाग्य से प्राप्त कर लिया है। उन्होंने जो पहिचान बताई वह भी मैं आपको बताये देता हूँ । निष्णात निमित्तज्ञों ने मुझे कहा था कि जो व्यक्ति अपने 'श्रीवत्स चिह्न' को वस्त्र से छुपाये हुए तुम्हारे घर आकर भोजन करे, उसी के साथ इस कन्या का विवाह कर देना । यह देखिये यन्त्र से ढका होने पर भी यह श्रीवत्स का चिह्न चमक रहा है ।" दोनों मित्र आश्चर्यचकित हो गये । ब्रह्मदत्त का बन्धुमती के साथ विवाह हो गया । प्रलयानिल के दारुप दुखद अन्धड़ में उड़ने के पश्चात् मानो ब्रह्मदत्त मादक मन्द मलयानिल के मधुर झोके का अनुभव किया, दम घोंट देने वाले दुखों की कालरात्रि के पश्चात् मानो पूर्णिमा की सुखद श्वेत चाँदनी उसकी आँखों के समक्ष थिरक उठी। एक रात्रि के सुख के पश्चात् पुनः दुःख का दरिया | ने उसे फिर ना धर दिनमणि के उदय होते-होते दीर्घराज के दुःख दबाया । दोनों कोष्ठक ग्राम से भागे पर देखा कि दीर्घ के तरह सब रास्तों को रोके खड़े हैं। यह देख दोनों मित्र वन्य बचाने के लिए घने वनों की झाड़ियों में छुपते हुए भाग रहे थे । उस समय 'छिद्रेष्वनर्थाः बहुली भवन्ति' इस उक्ति के अनुसार ब्रह्मदत्त को जोर की प्यास लगी और मारे प्यास के उसके प्रारण-पंखेरू उड़ने लगे । सैनिक दानवों की मृगों की तरह प्राण ब्रह्मदत्त ने एक वृक्ष की प्रोट में बैठते हुए कहा - "वरधनु ! मारे प्यास के अब एक डग भी नहीं चला जाता । कहीं न कहीं से शीघ्र ही पानी लाभो ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy