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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती
इस सनातन नीति-श्लोक के द्वितीय चरण को चरितार्थ कर दिया। __ मन्त्री-पुत्र वरधन भी शरीर की छाया की तरह राजकुमार के साथ ही उस लाक्षागृह में प्रविष्ट हो गया।
धन की दरदशिता और नीति-निपुणता क कारण किसी को किचितमात्र भी शंका करने का अवसर नहीं मिला कि वधू वास्तव में राजा पुष्पचूल की पुत्री पुष्पवती नहीं, अपितु उसी के समान स्वरूप वाली सर्वतो अनुरूपिणी दासी पुत्री है।
__ अन्त में अर्द्धरात्रि के समय दीर्घ और चलना की दूरभिसन्धि को कार्यरूप में परिणत किया गया । लाक्षागृह लपलपाती हुई लाल-लाल ज्वालामालाओं का गगनचुम्बी शिखर सा बन गया।
ब्रह्मदत्त वरधनु द्वारा सारी स्थिति से अवगत हो उसके साथ सुरंग-द्वार में प्रवेश कर गंगातट के यज्ञमण्डप में जा पहुँचा । तीव्र गति वाले सजे-सजाये दो घोड़ों पर ब्रह्मदत्त एवं वरधनु को बैठा अज्ञात सुदूर प्रदेश के लिए उन्हें विदा कर प्रधानामात्य धनु स्वयं भी किसी निरापद स्थान को ओर पलायन कर गया।
__ जो अतीत में बड़े लाड़-प्यार से राजसी ठाट-बाट में पला और जो भविष्य में सम्पूर्ण भारतवर्ष के समस्त छहों खण्डों की प्रजा का पालक प्रतापी चक्रवर्ती सम्राट बनने वाला है, वही ब्रह्मदत्त अपने प्राणों को बचाने के लिए घने, भयावने, अगम्य अरण्यों में, अर्द्धरात्रि में, अनाथ की तरह अज्ञात स्थान की ओर अन्धाधुन्ध भागा जा रहा था।
पवन-वेग से निरन्तर सरपट भागते हए घोड़ों ने काम्पिल्यपर को पचास योजन पीछे छोड़ दिया, पर अनवरत तीव्र गति से इतनी लम्बी दौड़ के कारण दोनों घोड़ों के फेफड़े फट गये और वे धराशायी हो चिरनिद्रा में सो गये।
ब्रह्मदत्त और वरधन ने अब तक पराये पैरों पर भाग कर पचास योजन पथ पार किया था। अब वे अपने प्राणों को बचाने के लिए अपने पैरों के बल बेतहाशा भागने लगे । भागते-भागते उनके श्वास फूल गये, फिर भी, क्योंकि अपने प्राण सबको अति प्रिय हैं, अतः वे भागते ही रहे । अन्ततोगत्वा वे बड़ी कठिनाई से कोष्ठक नामक ग्राम के पास पहुंचे।
___ वरधनु गाँव में पहुँचा और एक हज्जाम को साथ लिए लौटा । ब्रह्मदत्त ने नाई से अपना सिर मण्डित करवा काला परिधान पहन महान् पुण्य और प्रताप के द्योतक श्रीवत्स चिह्न को ढंक लिया । वरधन ने उसके गले में अपना यज्ञोपवीत डाल दिया।
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