________________
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
४४१
उसने दीर्घ नृपति से बड़ी नम्रतापूर्वक निवेदन किया- "महाराज ! मेरा पुत्र प्रधानामात्य के पदभार को सम्भालने के पूर्ण योग्य हो चुका है और मैं जराग्रस्त हो जाने के कारण राज्य संचालन के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यों में भी अब अपेक्षित तत्परता से दौड़धूप करने में असमर्थ हूँ । अब दान-धर्मादि पुण्य कार्यों में अपना शेष जीवन व्यतीत करना चाहता हूँ । अतः प्रार्थना है कि मुझे प्रधानामात्य के कार्यभार से कृपा कर मुक्त कीजिये ।"
कुटिल दीर्घ ने सोचा कि यदि इस प्रत्युत्पन्नमती, अनुभवी, राजनीतिनिष्णात को राज- कार्यों से अवकाश दे दिया गया तो यह कोई न कोई अचिन्त्य उत्पात खड़ा कर मेरी सभी दुरभिसन्धियों को चौपट कर देगा ।
उसने प्रकट में बड़े मधुर स्वर में कहा- “मन्त्रिवर ! आप जैसे विलक्षरण बुद्धि वाले योग्य मंत्री के बिना तो हमारा राज्य एक दिन भी नहीं चल सकता, क्योंकि आप ही तो इस राज्य की धुरी हैं। कृपया आप मंत्रिपद पर बने रहकर दान आदि धार्मिक कृत्य करते रहिये ।"
चतुर प्रधान मंत्री धनु दीर्घ के प्रति पूर्ण स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करते हुए जलिबद्ध हो उसकी आज्ञा को शिरोधार्य किया और गंगा नदी के तट पर विशाल यज्ञमण्डप का निर्माण करवाया । राज्य के सम्पूर्ण कार्यों को देखते हुए उसने गंगातट पर अन्नदान का महान् यज्ञ प्रारम्भ किया । वह यज्ञमण्डप में प्रतिदिन हजारों लोगों को अन्न-पानादि से तृप्त करने लगा ।
इस अन्नयाग के व्याज से उसने अपने विश्वस्त पुरुषों द्वारा बड़ी तेजी से यज्ञमण्डप से लाक्षागृह तक एक सुरंग का निर्माण करवा लिया और अपने गुप्तचर के द्वारा पुष्पचूल को दीर्घ और चुलना के भीषरण षड्यंत्र से अवगत करा बड़ी चतुराई से चाल चलने की सलाह दी ।
विवाह की तिथि से पूर्व ही कन्यादान की विपुल बहुमूल्य सामग्री के साथ बड़े समारोहपूर्वक कन्या काम्पिल्य नगर के राज- प्रासाद में पहुँच गई ।
पूर्व महोत्सव और बड़ी धूमधाम के साथ ब्रह्मदत्त का विवाह सम्पन्न हुआ । सुहागरात्रि के लिये देवमन्दिर की तरह सजाये गये लाक्षागृह में वर-वधू को पहुँचा दिया गया ।
स्वच्छन्द विषयानन्द लूटने के लोभ में कामान्ध बनी माँ ने अपने पुत्र को और अपनी समझ में अपने सहोदर की पुत्री को मौत के मुह में ढकेल कर -
ऋणकर्ता पिता शत्रुः, माता च व्यभिचारिणी । भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org