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________________ ४४० जैन धर्म का मौलिक इतिहास ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती __ कामासक्ता चुलना ने यह कह कर बात टाल दी-"यह अभी निरा बालक है, इसकी बालचेष्टाओं से तुम्हें नहीं डरना चाहिये ।" बालक ब्रह्मदत्त के अन्तर में दीर्घ और अपनी माता के पापाचार के प्रति विद्रोह का ज्वालामुखी फट चुका था। वह बालक बालकेलियों को भूल रातदिन उन दोनों को उनके दुराचार के लिये येन-केन-प्रकारेण सबक सिखाने की उधेड़-बुन में लग गया। दूसरे दिन ब्रह्मदत्त एक राजहंसिनी और बगले को साथ-साथ बांध कर दीर्घ और चुलना को दिखाते हुए आक्रोश भरे तीव्र स्वर में बार-बार कहने लगा-"यह महा अधम बगुला इस राजहंसिनी के साथ सहवास कर रहा है। इस निकृष्ट पापाचार को कोई भी कैसे सहन कर सकता है ? मैं इन्हें अवश्य ही मौत के घाट उतारूगा।" कुमार ब्रह्मदत्त के इस इंगित और आक्रोशपूर्ण उद्गारों को सुनकर दीर्घ को पूर्ण विश्वास हो गया कि ब्रह्मदत्त की ये चेष्टाएँ केवल बालचेष्टाएँ नहीं हैं, वरन् उसके अन्तर में प्रतिशोध की भीषण ज्वालाएँ भभक उठी हैं । उसने चलना से कहा-"देवि ! देख रही हो तुम्हारे इस पुत्र की करतूतें ? यह तुम्हें हंसिनी और मुझे बगुला समझ कर हम दोनों को मारने का दृढ़ संकल्प कर चुका है । यह थोड़ा बड़ा हुआ नहीं कि हम दोनों का वड़ा प्रबल शत्रु और घातक हो जायगा । यह निश्चित समझो कि तुम्हारी मृत्यु के लिए साक्षात काल ही तुम्हारे पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है, अतः तुम्हारा और मेरा इसी में हित है कि राजसिंहासनारूढ़ होने से पहले ही इस जहरीले काले नाग को कुचल दिया जाय । हम दोनों का वियोग नहीं होगा तो तुम और भी पत्रों को जन्म दे सकोगी । अतः इस प्रारणहारी पुत्र-मोह का परित्याग कर इसका प्राणान्त कर दो।" _ अन्त में कामान्धा चुलना पिशाचिनी की तरह अपने पुत्र के प्राणों की प्यासी हो गई । लोकापवाद से बचने के लिये उन दोनों ने कुमार ब्रह्मदन का विवाह कर सुहागरात्रि के समय वर-वधू को लाक्षागृह में सुलाकर भस्मसात् कर डालने का षड्यन्त्र रचा। ब्रह्मदत्त के लिए उसके मातुल पुष्पचूल नपति की पुत्री पुष्पवती को वाग्दान में प्राप्त किया गया और विवाह की बड़ी तेजी के साथ तैयारियां होने लगीं। प्रधानामात्य धनु पूर्ण सतर्क था और रात दिन दीर्घ और चुलना की हर गतिविधि पर पूरा-पूरा ध्यान रखता था । उसने इस गुप्त षड्यंत्र का पता लगा लिया और वर-वधू के प्राणों की रक्षा का उपाय सोचने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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