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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ जन्मस्थान
निधियों से परिपूर्ण करने और उनके जन्म के समय रत्नादि की वृष्टि करने का उल्लेख किया है ।
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पुत्रजन्म की खुशी में महाराज सिद्धार्थ ने राज्य के बन्दियों को कारागार मुक्त किया और याचकों एवं सेवकों को मुक्तहस्त से प्रीतिदानं दिया । दस दिन तक बड़े हर्षोल्लास के साथ भगवान् का जन्मोत्सव मनाया गया । समस्त नगर में बहुत दिनों तक ग्रामोद-प्रमोद का वातावरण छाया रहा ।
जन्मस्थान
महावीर की जन्मस्थली के सम्बन्ध में इतिहासज्ञ विद्वानों में मतभेद है । कुछ विद्वान् श्रागम साहित्य में उल्लिखित 'वेसालिय' शब्द को देख कर इनकी जन्मस्थली वैशाली मानते हैं । क्योंकि पाणिनीय व्याकरण के अनुसार 'विशालायां भव:' इस अर्थ में छ प्रत्यय होकर 'वेसालिय' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है - वैशाली में उत्पन्न होने वाला ।
कुछ विद्वानों के मतानुसार भगवान् का जन्मस्थान 'कु' डनपुर' है तो कुछ के 'अनुसार क्षत्रियकुड । क्षत्रियकुंड के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है । कुछ इसे मगध देश में मानते हैं तो कुछ इसे विदेह में । श्राचारांग और कल्पसूत्र में महावीर को विदेहवासी कहा गया है ।' डॉ० हर्मनजेकोबी ने विदेह का अर्थ विदेहवासी किया है । परन्तु 'विदेह जच्चे' का अर्थ 'देह में श्रेष्ठ' होना चाहिये, क्योंकि 'जच्चे' जात्यः का अर्थ उत्कृष्ट होता है । कल्पसूत्र के बंगला अनुवादक बसंतकुमार चट्टोपाध्याय ने इसी मत का समर्थन किया है । 3 दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों से भी इसी धारणा का समर्थन होता है । वहाँ कुडपुर-क्षत्रियकुंड की अवस्थिति जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में विदेह के
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अन्तर्गत मानी है । ४
[ कल्पसूत्र, सू० ११०]
१ नाए नायपुत्ते, नायकुलचन्दे, विदेहे - विदेहदिन्ने, विदेहजच्चे
२ सेक्रेड बुक्स प्रॉफ दी ईस्ट, सेक्ट २२, पृ० २५६
३ वसंतकुमार लिखते हैं-- दक्ष, दक्षप्रतिज्ञ, प्रादर्श रूपवान्, बालीन, भद्रक, विनीत, ज्ञात, ज्ञातीपुत्र, ज्ञाती कुलचन्द्र, विदेह, विदेह दत्तात्मज, वैदेहश्रेष्ठ, वैदेह सुकुमार श्रमण भगवान् महावीर त्रिश वत्सर विदेह देशे काटाइयां, माता पितार देवत्व प्राप्ति हइसे गुरुजन श्रो महत्तर गणेर अनुमति लइया स्वत्रतिज्ञा समाप्त करिया छिलेन । कल्प सू० प्र० व० कलकत्ता वि० वि० १९५३ ई०
४ (क) विक्रमी पांचवी सदी के प्राचार्य पूज्यपाद दशभक्ति में लिखते है : 'सिद्धार्थनृपति तनयो, भारतवास्ये विदेह कुंडपुरे । पृ० ११६
(ख) विक्रमी आठवीं सदी के प्राचार्य जिनसेन हरिवंश पुराण, खण्ड १, सर्ग २ में
लिखते हैं :
भरतेऽस्मिन् विदेहाख्ये, विषये भवनांगरणे ।
राज्ञः
कुण्डपुरेशस्य, वसुधारापतत् पृथुः ।। २५१ । २५२ । उत्तरार्द्ध
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