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________________ जन्म-महिमा ] भगवान् महावीर ५५५ महाराजा सिद्धार्थ के कोशागारों और भण्डारों को इस प्रकार भरपूर करवा कर देवराज शक्र ने कुण्डनपुर नगर के सभी बाह्याभ्यन्तर भागों, श्रृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों प्रादि में अपने श्राभियोगिक देवों से निम्नाशय की घोषणा करवाई : " चार जाति के देव - देवियों में यदि कोई भी देवी अथवा देव तीर्थंकर की माता अथवा तीर्थंकर के प्रति किसी भी प्रकार का अशुभ विचार करेगा तो उसका मस्तक आम्र - मंजरी की भांति शतधा तोड़ दिया जायगा ।" इस प्रकार की घोषणा करवाने के पश्चात् शक्र और सभी देवेन्द्रों ने नन्दीश्वर द्वीप में जा कर तीर्थंकर भगवान् का अष्टाह्निक जन्म महोत्सव मनाया । बड़े हर्षोल्लास के साथ अष्टाह्निक महोत्सव मनाने के पश्चात् सभी देव और देवेन्द्र आदि अपने-अपने स्थान को लोट गये ।" देवियों, देवों और देवेन्द्रों द्वारा भ० महावीर का शुचि-कर्म और तीर्थंकराभिषेक किये जाने के सम्बन्ध में आचारांग सूत्र में जो सार रूप में उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है : "क्षत्रियाणी त्रिशलादेवी ने जिस रात्रि में भ० महावीर को जन्म दिया, उस रात्रि में भवनपति, वारणव्यन्तर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देवों और देवियों ने भ० महावीर का शुचिकर्म और तीर्थंकराभिषेक किया ।" " श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य विमल सूरि ने 'पउम चरियम्' में और दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य जिनसेन ने 'आदि पुराण' में यह मान्यता अभिव्यक्त की है कि प्रत्येक तीर्थंकर के गर्भावतरण के छह मास पूर्व से ही देवगण तीर्थंकर के माता-पिता के राजप्रासाद पर रत्नों की वृष्टि करना प्रारम्भ कर देते हैं । आचार्य हेमचन्द्र और गुणचन्द्र प्रादि ने तीर्थंकर के गर्भावतरण के पश्चात् तृजृंभक देवों द्वारा शक्राज्ञा से तीर्थंकरों के पिता के राज्य-कोषों को विपुल १ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, पाँचवाँ बक्षस्कार । २ जंगं रयरिंग तिसला खत्तियागी समरणं भगवं महावीरं पसूया तसं रयरिंग भवणवइवारण मंतर जोइसिय विमारणवासिरगो देवा य देवियो य समरणस्स भगवप्रो महावीरस्स सुइकम्माई तित्थयराभिसेयं च करिंसु । प्राचारांग, श्रु० २, प्र० १५ ३ छम्मासेण जिरणवरो, होही गन्भम्मि चवरणकालानो । पाड़ेइ रयणवुट्ठी, घणो मासारिण पष्णरस ॥ ४ षड्भिर्मासंरथैतस्मिन् स्वर्गादवतरिष्यति । रत्नवृष्टि दिवो देवाः, पातयामासुरादरात् ॥ Jain Education International [ पउम चरिउं, ३ श्लोक ६७ ] [ श्रादि पुराण. १२, श्लोक ८४ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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