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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [जन्म-महिमा पुष्पाभरणादि की चंगेरियां, सिंहासन, छत्र, चामर आदि-आदि अभिषेक योग्य महायं विपुल सामग्री आभियोगिक देवों ने तत्काल प्रस्तुत की। सभी कलशों को क्षीरोदक, पुष्करोदक, भरत-एरवत क्षेत्रों के मागधादि तीर्थों और गंगा आदि महानदियों के जल से पूर्ण कर उन पर क्षीरसागर के सहस्रदल कमलपुष्पों के पिधान लगा पाभियोगिक देवों द्वारा वहाँ अभिषेक के लिए प्रस्तुत किया गया।
सर्वप्रथम अच्युतेन्द्र ने और तदनन्तर शेष सभी इन्द्रों ने उन कलशों और सभी प्रकार की अभिषेक योग्य महद्धिक, महाध्य सामग्री से प्रभु महावीर का महाजन्माभिषेक किया ।' देवदुन्दुभियों के निर्घोषों, जयघोषों, सिंहनादों, प्रास्फोटनों और विविध विवुध वाद्ययन्त्रों के तुमुल निनाद से गगन, गिरीन्द्र वसुन्धरातल एक साथ ही गुजरित हो उठे । देवों ने पंच दिव्यों की वृष्टि की, अद्भुत नाटक किये और अनेक देवगण आनन्दातिरेक से नाचते-नाचते झूम उठे।
___ इस प्रकार असीम हर्षोल्लासपूर्वक प्रभु महावीर का जन्माभिषेक करने के पश्चात् देवराज शक्र जिस प्रकार प्रभु को जन्म गृह से लाया था उसी प्रकार पूरे ठाठ के साथ जन्म-गृह में ले गया । शक ने प्रभु को माता के पास सुला कर प्रभ के विवित कृत्रिम स्वरूप को हटाया। प्रभु तदनन्तर देवराज शक्र ने प्रभु के सिरहाने क्षोमयुगल और कुण्डलयुगल रख त्रिशलादेवी की अवस्वापिनी निद्रा का हरण किया और तत्काल वह वहाँ से तिरोहित हो गया।
सौधर्मेन्द्र शक्र की आज्ञा से कुबेर ने जम्भक देवों को आदेश दे महाराजा सिद्धार्थ के कोशागारों को बत्तीस-बत्तीस कोटि हिरण्य-मद्रानों, स्वर्णमद्रानों, रत्नों तथा अन्यान्य भण्डारों को नन्द नामक वृत्तासनों, भद्रासनों एवं सभी प्रकार की प्रसाधन-सामग्रियों से भरवा दिया। १ मेरु पर्वत पर इन्द्रों द्वारा अभिषेक किये जाने के सम्बन्ध में प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि ने अपने त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में निम्नाशय का उल्लेख किया है : इन्द्र ने प्रभु को सुमेरु पर्वत पर ले जा कर जन्म-महोत्सव किया, उस समय शक के मन में शंका उत्पन्न हुई कि नवजात प्रभु का कुसुम सा सुकोमल व नन्हा सा वपु अभिषेक कलशों के जलप्रपात को किस प्रकार सहन कर सकेगा? भ० महावीर ने इन्द्र की इस शंका का निवारण करने हेतु अपने वाम पाद के अंगुष्ठ से सुमेरु को दबाया। इसके परिणामस्वरूप गिरिराज के उत्तुंग शिखर झंझावात से झकझोरे गये वेत्रवन की तरह प्रकम्पित हो उठे। शक को अवधिज्ञान से जब यह ज्ञात हुआ कि यह सब प्रभु के अनन्त बल की माया है, तो उसने नतमस्तक हो प्रभु से क्षमायाचना की।
त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग २, श्लोक ६०-६४
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