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________________ जन्म-महिमा भगवान् महावीर ५५३ भरती हैं । तदनन्तर तीन दिशाओं में तीन कदलीघर, प्रत्येक कदलीगृह में एकएक चतुश्शाल और प्रत्येक चतुश्शाल के मध्यभाग में एक-एक अति सुन्दर सिंहासन की विकुर्वणा करती हैं । ये सब कार्य निष्पन्न करने के पश्चात् वे माता त्रिशला के पास प्रा नवजात शिशु प्रभु को करतल में ग्रहण कर और माता त्रिशला को बहुओं में समेटे दक्षिणी कदलीगृह को चतुश्शाला में सिंहासन पर बिठा शतपाक, सहस्रपाक तैल से मर्दन और उबटन कर उसी प्रकार पूर्वीय कदलीगृह की चतुःशाला में ला सिंहासन पर बिठाती हैं । वहाँ माता और पुत्र दोनों को क्रमशः गन्धोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक से स्नान करा वस्त्रालंकारों से विभूषित कर उत्तरी कदलीगृह की चतुःशाला के मध्यस्थ सिंहासन पर प्रभ की माता और प्रभ को आसीन करती हैं । आभियोगिक देवों से गौशीर्ष चन्दन मंगवा अरणी से आग उत्पन्न कर हवन करती हैं । हवन के पश्चात् उन चारों दिवकुमारिकानों ने भूतिकर्म किया, रक्षा पोटलिका बाँधी और प्रभु के कर्णमल में मणिरत्नयुक्त दो छोटे-छोटे गोले इस प्रकार लटकाये जिससे कि वे टन-टन शब्द करते रहें। तदनन्तर वे देवियाँ तीर्थंकर प्रभ को उसी प्रकार करतल में लिये और माता को बाहुओं में समेटे जन्मगृह में लाईं और उन्हें शय्या पर बिठा दिया। वे सब दिवकुमारियाँ माता की शय्या के चारों ओर खड़ी हो प्रभु की और प्रभु की माता की पर्युपासना करती हुई मंगल गीत गाने लगीं। उसी समय सौधर्मेन्द्र देवराज शक्र अपनी सम्पूर्ण दिव्य ऋद्धि और परिवार के साथ प्रभु के जन्मगृह की प्रदक्षिणा आदि के पश्चात् माता त्रिशला देवी के पास आ उन्हें वन्दन-नमन-स्तुति-निवेदन के पश्चात् अवस्वापिनी विद्या से निद्राधीन कर दिया। प्रभु के दूसरे स्वरूप की विकुर्वरणा कर शक्र ने उसे माता के पास रखा। तदनन्तर वैक्रिय शक्ति से शक ने अपने पाँच स्वरूप बनाये । एक शक ने प्रभु को अपने करतल में लिया, एक शक्र ने प्रभु पर छत्र किया, दो शक प्रभु के पार्श्व में चामर ढुलाते हुए चलने लगे और पांचवां शक्र का स्वरूप हाथ में वज्र धारण किये प्रभु के आगे-आगे चलने लगा। चारों जाति के देवों और देवियों के प्रति विशाल समूह से परिवत शक्र जयघोष एवं विविध देव-वाद्यों के तुमूल निर्घोष से गगनमण्डल को गजाता हा दिव्य देवगति से चल कर मेरुपर्वत पर पण्डक वन में अभिषेक-शिला के पास पहुँचा । शेष ६३ इन्द्र भी अपनी सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ देव-देवियों के अति विशाल' परिवार से परिवृत हो उसी समय अभिषेक-शिला के पास पहुँचे । शक ने प्रभु महावीर को अभिषेकशिला पर पूर्वाभिमुख कर बिठाया और ६४ इन्द्र प्रभु की पर्युपासना करने लगे। अच्युतेन्द्र की आज्ञा से स्वर्ण, रजत, मणि, स्वर्णरोप्य, स्वर्णमणि, स्वर्णरजतमरिण, मत्तिका और चन्दन इन प्रत्येक के एक-एक हजार और आठ-आठ कलश, इन सब के उतने ही लोटे, थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठिका, चित्रक, रत्नकरण्ड, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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