________________
५५२
जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[जन्म-महिमा
में बैठ क्षत्रिय कुण्डनगर में पाई । उन्होंने महाराज सिद्धार्थ के राजप्रासाद की तीन बार प्रदक्षिणा करके अपने विमान को ईशान कोण में भूमि से चार अंगुल ऊपर ठहराया और उससे उतर कर वे सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ प्रभु के जन्म ग्रह में आई । उन्होंने माता और प्रभु दोनों को प्रणाम करने के पश्चात् त्रिशला महारानी से सविनय मदु-मंजल स्वर में निवेदन किया-"हे. त्रैलोक्यकनाथ तीर्थेश्वर की त्रिलोकवन्दनीया मातेश्वरी! आप धन्य हैं, जो आपने त्रिभुवनभास्कर जगदेकबन्धु जगन्नाथ को पुत्र रूप में जन्म दिया है । जगदम्ब ! हम अधोलोक की आठ दिवकूमारिकाएँ अपने देव-देवी परिवार के साथ इन निखिलेश जिनेश्वर का जन्मोत्सव मनाने आई हैं, अतः आप किसी प्रकार के भय का विचार तक मन में न आने दें।" वे प्रभु के जन्म भवन में और उसके चारों ओर चार-चार कोस तक भूमि को साफ-सुथरी और स्वच्छ बनाने के पश्चात् माता त्रिशलादेवी के चारों ओर खड़ी हो सुमधुर स्वर में विविध वाद्ययन्त्रों की ताल एवं तान के साथ मंगलगीत गाती हैं ।
तत्पश्चात उर्वलोक-वासिनी मेघंकरा आदि पाठ दिवकुमारियाँ भी उसी प्रकार प्रभु के जन्मगृह में आ वन्दन-नमन-स्तुति-निवेदन आदि के उपरान्त जन्मगृह और उसके चारों ओर चार-चार कोस तक जलवृष्टि, गन्धवृष्टि और पुष्पवृष्टि कर समस्त भूमिभाग को सुखद-सुन्दर-सुरम्य बना माँ त्रिशला महारानी के चारों ओर खड़ी हो विशिष्टतर मंगल गीत गाती हैं ।
ऊर्ध्वलोक निवासिनी दिवकुमारियों के पश्चात् पूर्वीय रुचक कूट पर रहने वाली नन्दुत्तरा आदि आठ दिवकुमारिकाएँ हाथों में दर्पण लिए, दक्षिणी रुचक कट-गिरि निवासिनी समाहारा आदि पाठ दिवकूमारियाँ झारियाँ हाथ में लिए, पश्चिमी रुचक-कूट-निवासिनी इनादेवी आदि पाठ दिशाकुमारियाँ हाथों में सुन्दर तालवन्तों से व्यजन करती हई और उत्तरी रुचक कट वासिनी अलम्बुषा आदि पाठ दिवकुमारिकाएँ तीर्थंकर माता त्रिशला और नवजात प्रभु महावीर को श्वेत चामर ढुलाती हुई मधुर स्वर में मंगलगीत गाती हैं।
तदनन्तर चित्रा, चित्रकनका, सतेरा और सुदामिनी नाम्नी विदिशा के रुचक-कूट पर रहने वाली चार दिशाकुमारिकाएँ वन्दन-नमन-स्तुति निवेदन के पश्चात् जगमगाते प्रदीप हाथों में लिए माता त्रिशला के चारों ओर चारों विदिशाओं में खड़ी हो मंगल गीत गाती हैं।
ये सब कार्य दिव्य द्रुत गति से शीघ्र ही सम्पन्न हो जाते हैं । उसी समय रूपा, रूपांशा, सुरूपा और रूपकावती नाम की, मध्य रुचक पर्वत पर रहने वाली चार महत्तरिका दिशाकुमारियाँ वहाँ पा वन्दन आदि के पश्चात् नाभि के ऊपर चार अंगल छोड़ कर नाल को काटती है । प्रासाद के प्रांगरण में गड्ढा खोद कर उसमें नाल को गाड़ कर रत्नों और रत्नों के चूर्ण से उस खड्डे को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org