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________________ पुद्गल परिव्राजक का बोध] भगवान् महावीर ६२५ एक बार अज्ञानता के कारण उसके मन में विचार हा कि देवों की स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट दश सागर की है। इससे आगे न देव हैं और न उनकी स्थिति ही । उसने घूम-घूम कर सर्वत्र इस बात का प्रचार किया । फलतः भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए गौतम ने भी सहज में यह चर्चा सुनी। उन्होंने भगवान् के चरणों में आकर पूछा तो प्रभु ने कहा- “गौतम ! यह कहना ठीक नहीं । दोनों की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर तक है ।" पुद्गल ने कर्णपरम्परा से भगवान् का निर्णय सुना तो वह शंकित हुप्रा और महावीर के पास पूछने को आ पहुँचा । वह महावीर की देशना सुन कर प्रसन्न हुआ। भक्तिपूर्वक प्रभु की सेवा में दीक्षित होकर उसने तप-संयम की आराधना करते हुए मुक्ति प्राप्त की।' इसी विहार में 'चुल शतक' ने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया। पालभिया से विभिन्न स्थानों में विहार करते हुए भगवान् राजगृह पधारे और वहाँ 'मंकाई', 'किं.कत', अर्जनमाली एवं काश्यप को मुनि-धर्म की दीक्षा प्रदान की । गाथापति 'वरदत्त' ने भी यहीं संयम ग्रहण किया और बारह वर्ष तक संयमधर्म की पालना कर, मुक्ति प्राप्त की। इस वर्ष प्रभु का वर्षावास भी राजगृह में व्यतीत हुआ । 'नंदन' मणिकार ने इसी वर्ष श्रावक-धर्म ग्रहण किया। केवलीचर्या का सातवां वर्ष वर्षाकाल के बीतने पर भी भगवान् अवसर जानकर राजगृह में विराजे रहे । एक बार श्रेणिक भगवान के पास बैठा था कि उस समय कोढ़ी के रूप में एक देव भी वहाँ उपस्थित हुया । भगवान् को छींक आई तो उसने कहा-"जल्दी मरो।" और जब श्रेणिक को छींक आई तो उसने कहा-"चिरकाल तक जोयो।" अभय छोंका तो वह बोला- "जीवो या मरो।" 'काल शौकरिक' के छोंकने पर उसने कहा--"न जीयो न मरो।" इस तरह कोढ़ी रूप देव ने भिन्न. भिन्न व्यक्तियों के छोकने पर भिन्न-भिन्न शब्द कहे । भगवान् के लिए 'मरो' कहने से महाराज श्रेणिक रुष्ट हुए । उनकी सुखाकृति बदलते हो सेवक पुरुष उस कोढ़ी को मारने उठ किन्तु तब तक वह अदृश्य हो गया। दूसरे दिन श्रेणिक ने उस कोढ़ी एवं उसके कहे हुए शब्दों के बारे में भगवान् से पूछा तो प्रभु ने फरमाया-''राजन् ! वह कोई कोढ़ी नहीं, देव था। मुझे मरने को कहा, इसका अर्थ जल्दी मोक्ष जा, ऐसा है । तुम जीते हो तब तक सुख है, फिर नर्क में दुःख भोगना होगा, इसलिए तुम्हें कहा-खूब जीयो। अभय का जीवन और मरण दोनों अच्छे हैं और कालशौकरिक के दोनों १ भतवती शतक ११, उ० १२, सू० ४३६ । २ अंत कृतदशासूत्र, ६।६, ४, ६ पृ. १०४-१०५ । (जयपुर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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