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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का सातवां वर्ष बुरे, उसके लिए न जीने में लाभ और न मरने में सुख, अत: कहा-न जीयो, न मरो।"
___ यह सुनकर श्रेणिक ने पूछा- "भगवन् ! मैं किस उपाय से नारकीय दुःख से बच सकता है, यह फरमायें।" इस पर प्रभु ने कहा--"यदि कालशौकरिक से हत्या छुड़वा दे या 'कपिला' ब्राह्मणी दान दो तो तुम नरक गति से छूट सकते हो।" श्रेणिक ने भरसक प्रयत्न किया, पर न तो कसाई ने हत्या छोड़ी और न 'कपिला' ने ही दान देना स्वीकार किया। इससे श्रेणिक बड़ा दुःखी हुमा, किन्तु प्रभु ने कहा-“चिन्ता मत कर, तू भविष्य में तीर्थंकर होगा।"२
समय पाकर राजा श्रेणिक ने यह घोषणा करवाई-"जो कोई भगवान् के पास प्रव्रज्या ग्रहण करेगा, मैं उसे यथोचित सहयोग दूंगा, पीछे के परिवार की सँभाल करूंगा।" घोषणा से प्रभावित हो अनेक नागरिकों के साथ[१] जालि, [२] मयालि, [३] उपालि, [४] पुरुषसेन, [५] वारिषेण, [६] दीर्घदंत, [७] लष्टदंत, [८] बेहल्ल, [६] बेहास, [१०] अभय, [११] दीर्घसेन, [१२] महासेन, [१३] लष्टदंत, [१४] गूढ़दंत, [१५] शुद्धदंत, [१६] हल्ल, [१७] द्रुम, [१८] द्रुमसेन, [१६] महाद्रुमसेन, [२०] सिंह, [२१] सिंहसेन, [२२] महासिंहसेन और [२३] पूर्णसेन इन तेईस राजकुमारों ने तथा [१] नंदा, [२] नंदमती, [३] नंदोत्तरा, [४] नंदिसेणिया, [५] मरुया, [६] सुमरिया, [७] महामस्ता , [८] मरुदेवा, [8] भद्रा, [१०] सुभद्रा, [११] सुजाता, [१२] सुमना और [१३] भूतदत्ता, इन तेरह रानियों ने दीक्षित होकर भगवान के संघ में प्रवेश किया । ग्राईक मुनि भी भगवान् को वन्दन करने यहीं आये । इस प्रकार इस वर्ष प्रभु ने अनेक उपकार किये । सहस्रों लोगों को सत्पथ पर लगाया और इस वर्ष का चातुर्मास भी राजगृह में व्यतीत किया।
केवलीचर्या का प्राठवाँ वर्ष वर्षाकाल के पश्चात् कुछ दिन तक राजगृह में विराजकर भगवान् आलंभिया' नगरी में ऋषिभद्रपुत्र श्रावक के उत्कृष्ट व जघन्य देवायुध्य सम्बन्धी विचारों का समर्थन करते हुए कौशाम्बी पधारे और 'मगावती' को संकटमुक्त किया । क्योंकि मृगावती के रूपलावण्य पर मुग्ध हो चण्डप्रद्योत उसे अपनी १ प्रावश्यक चू०, उत्तर०, पृ० १६६ । २ महावीर चरियं, गुरणचन्द्र, पत्र ३३४ । ३ अणुतरोववाई। ४ अंतगड़। ५ २३-१३ सा०।
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