________________
केवलीचर्या का नवम वर्ष ]
भगवान् महावीर
६२७
रानी बनाने के लिए कौशाम्बी के चारों ओर घेरा डाले हुए था । उदयन की लघु वय होने के कारण उस समय चंडप्रद्योत को भुलावे में डाल कर रानी मृगावती ही राज्य का संचालन कर रही थी । भगवान् के पधारने की बात सुन कर वह वन्दन करने गई तथा त्याग विरागपूर्ण उपदेश सुन कर प्रव्रज्या लेने को उत्सुक हुई और बोली - "भगवन् ! चण्डप्रद्योत की आज्ञा ले कर मैं श्री चरणों में प्रव्रज्या लेना चाहती हूँ ।" उसने वहीं पर चण्डप्रद्योत से जा कर अनुमति के लिए कहा । प्रद्योत भी सभा में लज्जावश मना नहीं कर सका और उसने अनुमति प्रदान कर सत्कारपूर्वक मृगावती को भगवान् की सेवा में प्रव्रज्या प्रदान करवा दी । भगवत् कृपा से मृगावती पर आया हुआ शील-संकट सदा के लिए टल गया । इस वर्ष भगवान् का वर्षावास वैशाली में व्यतीत हुआ । केवलचर्या का नवम वर्ष
वैशाली का वर्षावास पूर्ण कर भगवान् मिथिला होते हुए 'काकंदी' पधारे और सहस्राम्र उद्यान में विराजमान हुए। भगवान् के श्रागमन का समाचार सुन कर राजा जितशत्रु भी सेवा में वन्दन करने गया । 'भद्रा' सार्थवाहिनी का पुत्र धन्यकुमार भी प्रभु की सेवा में पहुँचा । प्रभु का उपदेश सुन कर काकंदी का धन्यकुमार बड़ा प्रभावित हुआ और माता की अनुमति ले कर विशाल वैभव एवं ३२ कुलीन सुन्दर भार्यानों को छोड़ कर भगवान् के चरणों में दीक्षित हो गया ।
राजा जितशत्रु इतने धर्म प्रेमी थे कि उन्होंने यह घोषणा करवा दी - "जो लोग जन्म-मरण का बन्धन काटने हेतु भगवान् महावीर के पास दीक्षित होना चाहते हों, वे प्रसन्नता से दीक्षा ग्रहण करें, मैं उनके सम्बन्धियों के योगक्षेम का भार अपने ऊपर लेता हूँ ।" महाराज जितशत्रु ने बड़ी धूम-धाम से धन्यकुमार की दीक्षा करवाई । दीक्षित हो कर धन्यकुमार ने स्थविरों के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन किया ।
धन्यकुमार ने जिस दिन दीक्षा ग्रहरण की उसी दिन से प्रभु की अनुमति पाकर उसने प्रतिज्ञा की - "मुझे आजीवन छट्ठ-छट्ठ की तपस्या करते हुए विचरना, दो दिन के छट्ठ तप के पारणे में भी आयंबिल करना एवं उज्झित भोजन ग्रहण करना है ।" इस प्रकार की घोर तपश्चर्या करते हुए उनका शरीर सूख कर हड्डियों का ढाँचा मात्र शेष रह गया, फिर भी वे मन में किचिन्मात्र भी खिन्न नहीं हुए । उनके अध्यवसाय इतने उच्च थे कि भगवान् महावीर ने चौदह हजार साधुत्रों में धन्यकुमार मुनि को सबसे बढ़ कर दुष्कर करणी करने वाला बतलाया और श्रेणिक के सम्मुख उनकी प्रशंसा की । नव मास की साधु१ श्राव० ० प्र० १, पृ० ६१ ।
,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org