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________________ ६२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ केवलीचर्या का पर्याय में धन्य मुनि ने अनशनपूर्वक देहत्याग किया और वे सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए । ' 'सुनक्षत्रकुमार' भी इसी प्रकार भगवान् के पास दीक्षित हुए और अनशन कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुए । काकंदी से विहार कर भगवान् कंपिलपुर, पोलासपुर होते हुए वाणिज्यग्राम पधारे। कंपिलपुर में कुरंडकौलिक ने श्रावकधर्म ग्रहण किया और पोलासपुर में सद्दालपुत्र ने बारह व्रत स्वीकार किये । इनका विस्तृत विवरण उपासक दशा सूत्र में उपलब्ध होता है । वाणिज्यग्राम भगवान् विहार कर वैशाली पधारे और इस वर्ष का वर्षावास भी वैशाली में पूर्ण किया । केवलोचर्या का दशम वर्ष वर्षांकाल के पश्चात् भगवान् मगध की ओर विहार करते हुए राजगृह पहुँचे । वहाँ भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो कर 'महाशतक' गाथापति ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया । पार्श्वपत्य स्थविर भी यहाँ पर भगवान् के समवशरण में आये और भगवान् महावीर से अपनी शंका का समाधान पा कर सन्तुष्ट हुए । उन्होंने महावीर को सर्वज्ञ माना और उनकी वन्दना की एवं चतुर्यामधर्म से पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार कर विचरने लगे । उस समय रोहक मुनि ने भगवान् से लोक के विषय में कुछ प्रश्न किये जो उत्तर सहित इस प्रकार हैं : : (१) लोक और अलोक में पहले पीछे कौन है ? भगवान् ने कहा - " अपेक्षा से दोनों पहले भी हैं और पीछे भी हैं । इनमें कोई नियत कम नहीं है । (२) जीव पहले है या ग्रजीव पहले ? भगवान् ने फरमाया - "लोक और प्रलोक की तरह जीव और प्रजीव तथा भवसिद्धिक-प्रभवसिद्धिक और सिद्ध व प्रसिद्ध में भी पहले पीछे का कोई नियत कम नहीं है ।" (३) संसार के आदिकाल की दृष्टि से रोहक ने पूछा - "प्रभो ! अंडा पहले हुआ या मुर्गी पहले ?" १ श्रणुत्तरो०, ३१० । २ भग० श०५, उ०६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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