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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ केवलीचर्या का
पर्याय में धन्य मुनि ने अनशनपूर्वक देहत्याग किया और वे सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए । '
'सुनक्षत्रकुमार' भी इसी प्रकार भगवान् के पास दीक्षित हुए और अनशन कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुए ।
काकंदी से विहार कर भगवान् कंपिलपुर, पोलासपुर होते हुए वाणिज्यग्राम पधारे। कंपिलपुर में कुरंडकौलिक ने श्रावकधर्म ग्रहण किया और पोलासपुर में सद्दालपुत्र ने बारह व्रत स्वीकार किये । इनका विस्तृत विवरण उपासक दशा सूत्र में उपलब्ध होता है । वाणिज्यग्राम भगवान् विहार कर वैशाली पधारे और इस वर्ष का वर्षावास भी वैशाली में पूर्ण किया ।
केवलोचर्या का दशम वर्ष
वर्षांकाल के पश्चात् भगवान् मगध की ओर विहार करते हुए राजगृह पहुँचे । वहाँ भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो कर 'महाशतक' गाथापति ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया । पार्श्वपत्य स्थविर भी यहाँ पर भगवान् के समवशरण में आये और भगवान् महावीर से अपनी शंका का समाधान पा कर सन्तुष्ट हुए । उन्होंने महावीर को सर्वज्ञ माना और उनकी वन्दना की एवं चतुर्यामधर्म से पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार कर विचरने लगे ।
उस समय रोहक मुनि ने भगवान् से लोक के विषय में कुछ प्रश्न किये जो उत्तर सहित इस प्रकार हैं :
:
(१) लोक और अलोक में पहले पीछे कौन है ?
भगवान् ने कहा - " अपेक्षा से दोनों पहले भी हैं और पीछे भी हैं । इनमें कोई नियत कम नहीं है ।
(२) जीव पहले है या ग्रजीव पहले ?
भगवान् ने फरमाया - "लोक और प्रलोक की तरह जीव और प्रजीव तथा भवसिद्धिक-प्रभवसिद्धिक और सिद्ध व प्रसिद्ध में भी पहले पीछे का कोई नियत कम नहीं है ।"
(३) संसार के आदिकाल की दृष्टि से रोहक ने पूछा - "प्रभो ! अंडा पहले हुआ या मुर्गी पहले ?"
१ श्रणुत्तरो०, ३१० ।
२ भग० श०५, उ०६।
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