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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[केवलीचर्या का छठा वर्ष
धर्म-जागरण किया करता था। उद्रायण के मनोगत भावों को जानकर भगवान ने 'वीतभय' नगर की मोर प्रस्थान किया । गर्मी के कारण मार्ग में साधुओं को बड़े कष्ट झेलने पड़े । कोसों दूर-दूर तक बस्ती का प्रभाव था । जब भगवान् भूखे-प्यासे शिष्यों के संग विहार कर रहे थे, तब उनको तिलों से लदी गाड़ियाँ नजर पायीं। साधु-समुदाय को देखकर गाड़ी वालों ने कहा-"इनको खाकर क्षुधा शान्त कर लीजिये ।" पर भगवान् ने साधुनों को लेने की अनुमति नहीं दी । भगवान् को ज्ञात था कि तिल अचित्त हो चुके हैं । पास के ह्रद का पानी भी प्रचित्त था फिर भी भगवान् ने साधुओं को उससे प्यास मिटाने की अनुमति नहीं दी। कारण कि स्थिति क्षय से निर्जीव बने हुए धान्य और जल को सहज स्थिति में लिया जाने लगा तो कालान्तर में अग्राह्य-ग्रहरण में भी प्रवत्ति होने लगेगी और इस प्रकार मुनि धर्म की व्यवस्था में नियन्त्रण नहीं रहेगा । अतः छद्मस्थ के लिए कहा है कि निश्चय में निर्दोष होने पर भी लोकविरुद्ध वस्तु का ग्रहण नहीं करना चाहिये ।' वीतभय नगरी में भगवान के विराजने के समय वहाँ के राजा उद्रायण ने प्रभु की सेवा का लाभ लिया और कइयों ने त्यागमार्ग ग्रहण किया। फिर वहाँ से विहार कर भगवान वारिणयग्राम पधारे और यहीं पर वर्षाकाल पूर्ण किया।
केवलीचर्या का छठा वर्ष वारिणयग्राम में वर्षाकाल पूर्ण कर भगवान वाराणसी की ओर पधारे और वहाँ के 'कोष्ठक चैत्य' में विराजमान हुए । भगवान् का आगमन सुनकर महाराज जितशत्रु वंदन करने आये । भगवान् ने उपस्थित जन-समुदाय को धर्मदेशना फरमाई । उपदेश से प्रभावित होकर चल्लिनी-पिता, उनकी भार्या श्यामा तथा सुरादेव और उसकी पत्नी धन्या ने भी श्रावक-धर्म ग्रहण किया, जो कि भगवान् के प्रमुख श्रावकों में गिने जाते हैं। इस तरह प्रभु के उपदेशों से उस समय के समाज का अत्यधिक उपकार हुआ।
वाराणसी से भगवान् ‘ालंभिया' पधारे और 'शंखनाद' उद्यान में शिष्य-मंडली सहित विराजमान हुए। भगवान् के पधारने की बात सुनकर प्रालंभिया के राजा जितशत्रु भी वन्दन के लिए प्रभु की सेवा में आये ।
पुद्गल परिव्राजक का बोध शंखवन उद्यान के पास ही 'पुदगल' नाम के परिव्राजक का स्थान था। वह वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों का विशिष्ट ज्ञाता था । निरन्तर छठ-छट्ठ की तपस्या से प्रातापना लेते हुए उसने विभंग ज्ञान प्राप्त किया, जिससे वह ब्रह्मलोक तक की देवस्थिति जानने लगा। १ बृहत्कल्प भा० बृ० भा० २, गा० ६६७ से ६६६, पृ० ३१४-१५ ।
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