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साधना और उपसर्ग] भगवान् श्री पार्श्वनाथ
४६३ कर रहा है । तुम्हें नहीं मालूम कि ऐसी महान् आत्मा की अवज्ञा व प्रशातना अग्नि को पैर से दबाने के समान दुःखप्रद है। इनका तो कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, किन्तु तेरा सर्वनाश हो जायगा। भगवान् तो दयालु हैं, पर मैं इस तरह सहन नहीं करूंगा।"
धरणेन्द्र की बात सुनकर मेघमाली भयभीत हुमा और प्रभु की अविचल शान्ति एवं धरणेन्द्र की भक्ति से प्रभावित होकर उसने अपनी माया तत्काल समेट ली। प्रभु के चरणों में सविनय क्षमा याचना कर वह अपने स्थान को चला गया। धरणेन्द्र भी भक्ति-विभोर ही पावं की सेवा-भक्ति कर वहाँ से अपने स्थान को चला गया।
उपसर्ग पर विजय प्राप्त कर भगवान् अपनी अखण्ड साधना में रत रहे । इस तरह अनेक स्थलों का विचरण करते हुए प्रभु वाराणसी के बाहर पाश्रमपद नामक उद्यान में पधारे और उन्होंने छद्मस्थकाल की तिरासी रातें पूर्ण की।
केवलज्ञान छद्मस्थ दशा की तिरासी रात्रियां पूर्ण होने के पश्चात चौरासीवें दिन प्रभु वाराणसी के निकट आश्रमपद उद्यान में घातकी वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़ हो गये । अष्टम तप के साथ शुक्लध्यान के द्वितीय चरण में मोह कर्म का क्षय कर आपने सम्पूर्ण घातिक कर्मों पर विजय प्राप्त की और केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि की। जिस समय आपको केवलज्ञान हुया उस समय चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में चन्द्र का योग था।
पद्मकीर्ति ने कमठ द्वारा उपस्थित किये गये उपसर्ग के समय प्रभु के केवलज्ञान होना माना है, जबकि अन्य श्वेताम्बर आचार्यों ने कुछ दिनों बाद । तिलोयपण्णत्ती ने चार मास के बाद केवली होना माना है, पर सबने केवलज्ञान प्राप्ति का दिन चैत्र कृष्णा चतुर्थी और विशाखा नक्षत्र ही मान्य किया है।
भगवान् पार्श्वनाथ को केवलज्ञान की उपलब्धि होने की सूचना पाकर महाराज अश्वसेन वन्दन करने आये और देव-देवेन्द्रों ने भी हर्षित मन से आकर केवलज्ञान की महिमा प्रकट की। उस समय सारे संसार में क्षण भर के लिये प्रद्योत हो गया । देवों द्वारा समवसरण की रचना की गई।
देशना और संघ-स्थापना केवलज्ञान की उपलब्धि के बाद भगवान् ने जगजीवों के हितार्थ धर्म१ दिगम्बर परम्परा में प्रभु का छपस्थकाल चार मास और उपसर्गकर्ता का नाम शंबर माना गया है । हेमचन्द्र ने 'दीक्षादिनादतिगतेषु तु दिनेषु चतुरणीति' ८४ दिन लिखा है।
-सम्पादक २ कल्पसूत्र में छ? तप का उल्लेख है।
SUBASTISHALINGAMAGRAM E
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