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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० पार्श्वनाथ की डराने-धमकाने का प्रयास किया, परन्तु भगवान पार्श्वनाथ पर्वतराज की तरह अडोल एवं निर्मम भाव से सब कुछ सहते रहे।
मेघमाली अपनी इन करतूतों की विफलता से और अधिक क्रुद्ध हुआ । उसने वैक्रिय-लब्धि की शक्ति से घनघोर मेघघटा की रचना की । भयंकर गर्जन
और विद्युत की कड़कड़ाहट के साथ मूसलधार वर्षा होने लगी । दनादन अोले गिरने लगे, वन्य-जीव भय के मारे त्रस्त हो इधर-उधर भागने लगे । देखते ही देखते सारा वन-प्रदेश जलमय हो गया । प्रभु पार्श्व के चारों ओर पानी भर गया
और वह चढ़ते-चढ़ते घुटनों, कमर और गर्दन तक पहुँच गया। नासाग्र तक पानी आ जाने पर भी भगवान् काध्यानभंग नहीं हुआ ।' जबकि थोड़ी ही देर में भगवान् का सारा शरीर पानी में डूबने ही वाला था, तब धरणेन्द्र का आसन कम्पित हुआ। उसने अवधिज्ञान से देखा तो, पता चला--"मेरे परम उपकारी भगवान् पार्श्वनाथ इस समय घोर कष्टों से घिरे हुए हैं।" यह देख कर वह बहुत ही क्षब्ध हना और पद्मावती, वैरोट्या आदि देवियों के साथ तत्काल दौड़कर प्रभु की सेवा में पहुंचा। धरणेन्द्र ने प्रभु को नमस्कार किया और उनके चरणों के नीचे दीर्घनाल युक्त कमल की रचना की एवं प्रभु के शरीर को सप्तफरणों के छत्र से अच्छी तरह ढक दिया। भगवान देव-कृत उस कमलासन पर समाधिलीन राजहंस की तरह शोभा पा रहे थे।
वीतराग भाव में पहँचे भगवान पार्श्वनाथ कमठासुर की उपसर्ग लीला और धरणेन्द्र की भक्ति, दोनों पर समदृष्टि रहे। उनके हृदय में न तो कमठ के प्रति द्वष था और न धरणेन्द्र के प्रति अनुराग। वे मेघमाली के उपसर्ग से किंचिन्मात्र भी क्षब्ध नहीं हए । इतने पर भी मेघमाली क्रोधवश वर्षा करता रहा तब धरणेन्द्र को अवश्य रोष आया और वह गरज कर बोला-"दुष्ट ! तू यह क्या कर रहा है ? उपकार के बदले अपकार का पाठ तूने कहां पढ़ा है ? जिन्होंने तुम्हें प्रज्ञानगर्त से निकाल कर समुज्ज्वल सुमार्ग का दर्शन कराया, उनके प्रति कृतघ्न होकर उनको ही उपसर्ग-पीड़ा से पीड़ित करने का प्रयास
१ अवगणियासेसोवसग्गस्स य लग्गं नासियाविवरं जाव सलिलं ।
[चउवन्न म. पु. चरियं, पृ. २६७] २ एत्थावसरम्मि य चलियमासणं धरणराइयो ।
[वही] ३ (क) सिरिपासणाह चरियं में सात फणों का छत्र करने का उल्लेख है । यथा-"""
सत्तसंखफारफणाफल गमयं....... (स) चउवन्न महापुरिस चरियं में सहस्रफण का उल्लेख है । यथा :-विरइयं भयवो उरि फणसहस्सायवत्त ।
[पृ० २६७]
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