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________________ मुनि-दीक्षा भगवान् श्री पार्श्वनाथ ४६१ अष्टमतप का पारणा किया। देवों ने पंच-दिव्यों की वर्षा कर दान की महिमा प्रकट की। प्राचार्य गुणभद्र ने 'उत्तरपुराण' में गुल्मखेट नगर के राजा धन्य' के यहां अष्टम-तप का पारगगा होना लिखा है। पद्मकीति ने अष्टम-तप के स्थान पर पाठ उपवास से दीक्षित होना लिखा है, जो विचारणीय है। अभिग्रह दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् भगवान् ने यह अभिग्रह किया "तिरासी (८३) दिन का छद्मस्थ-काल का मेरा साधना-समय है, उसे पूरे समय में शरीर से ममत्व हटा कर मैं पूर्ण समाधिस्थ रहूंगा। इस अवधि में देव, मनष्य और पशु-पक्षियों द्वारा जो भी उपसर्ग उपस्थित किये जायेंगे, उनको मैं अविचल भाव से सहन करता रहूँगा।" भ० पार्श्वनाथ की साधना और उपसर्ग वाराणसी से विहार करते हए उपर्य क्त अभिग्रग्रहानसार भगवान शिवपुरी नगर पधारे और कौशाम्बवन में ध्यानस्थ हो खड़े हो गये ।२ वहां पूर्वभव को स्मरण कर धरणेन्द्र पाया और धूप से रक्षा करने के लिये उसने भगवान् पर छत्र कर दिया । कहते हैं उसी समय से उस स्थान का नाम 'अहिछत्र' प्रसिद्ध हो गया । फिर विहार करते हुए प्रभु एक नगर के पास तापसाश्रम पहुँचे और सायंकाल हो जाने के कारण वहीं एक वटवृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग कर खड़े हो गये। सहसा कमठ के जीव ने, जो मेघमाली असुर बना था, अपने ज्ञान से प्रभु को ध्यानस्थ खड़े देखा तो पूर्वभव के वैर की स्मृति से वह भगवान पर बड़ा ऋद्ध हा। वह तत्काल सिंह, चीता, मत्त हाथी, आशुविष वाला बिच्छ और साँप आदि के रूप बनाकर भगवान को अनेक प्रकार के कष्ट देने लगा। तदनन्तर उसने बीभत्स वैताल का रूप धारण कर प्रभु को अनेक प्रकार से १ गुल्मखेटपुरं कायस्थित्यर्थं समुपेयिवान् ।। १३२।। तत्र धनाख्य भूपालः श्यामवर्णोऽष्ट मंगलः प्रतिगृह्याशनं शुद्ध, दत्वापत्तत्क्रियोचितम् ।।१३३॥ [उत्तरपुराण, पर्व ७३] २ सिवनयरीए बहिया, कोसंबवणे ट्ठियो य पडिमाए [पासनाह चरियं, ३, पृ० १८७] ३ ........पहुणो उवरि धरइ छत्त । [वी पृ० १८८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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