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________________ ४६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [वैराग्य और किन्तु प्राचार्य हेमचन्द्र और वादिराज ने पार्श्व की वैराग्योत्पत्ति में बाह्य कारण को निमित्त न मानकर स्वभावतः ज्ञान भाव से विरक्त होना माना है। शास्त्रीय दृष्टि से विचार करने पर भी वही पक्ष समीचीन और यक्तिसगत प्रतीत होता है। शास्त्र में लोकान्तिक देवों द्वारा तीर्थंकरों से निवेदन करने का उल्लेख आता है, वह भी केवल मर्यादा-रूप ही माना गया है, कारण कि संसार में बोध पाने वालों की तीन श्रेणियां मानी गई हैं -(१) स्वयंबुद्ध, (२) प्रत्येक बुद्ध और (३) बुद्धबोधित । इनमें तीर्थंकरों को स्वयंबद्ध कहा हैवे किसी गुरु आदि से बोध पाकर विरक्त नहीं होते। किसी एक बाह्यनिमित्त को पाकर बोध पाने वाले प्रत्येक बुद्ध और ज्ञानवान गुरु से बोध पाने वाले को बुद्ध-बोधित कहते हैं। तीन ज्ञान के धनी होने से तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं, अतः इनका बाह्यकारण-सापेक्ष वैराग्य मानना ठीक नहीं। पार्श्वनाथ सहज-विरक्त थे । तीस वर्ष तक गहस्थ जीवन में रहकर भी वे काम-भोग में आसक्त नहीं हुए। भगवान पार्श्व ने भोग्य कर्मों के फलभोगों को क्षीण समझ कर जिस समय संयम ग्रहण करने का संकल्प किया, उस समय लोकान्तिक देवों ने उपस्थित होकर प्रार्थना की- "भगवन् ! धर्मतीर्थ को प्रकट करें।"१ तदनुसार भगवान् पार्श्वनाथ वर्षभर स्वर्ण-मुद्राओं का दान कर पौष कृष्णा एकादशी को दिन के पूर्व भाग में देवों, असुरों और मानवों के साथ वाराणसी नगरी के मध्यभाग से निकले और आश्रमपद उद्यान में पहुँच कर अशोक वृक्ष के नीचे विशाला शिविका से उतरे । वहाँ भगवान ने अपने ही हाथों आभषणादि उतार कर पंचमुष्टि लोच किया और तीन दिन के निर्जल उपवास अर्थात् अष्टम-तप से विशाखा नक्षत्र में तीन सौ पुरुषों के साथ गहवास से निकलकर सर्वसावद्यत्याग रूप प्रणगार-धर्म स्वीकार किया। प्रभु को उसी समय चौथा मनः पर्यवज्ञान हो गया। प्रथम पारणा दीक्षा-ग्रहण के दूसरे दिन प्राश्रमपद उद्यान से विहार कर प्रभु कोपकटक सन्निवेश में पधारे। वहां धन्य नामक गृहस्थ के यहां आपने परमान्न-खीर से १ इतश्च पावो भगवान्, कर्मभोगफलं निजम् । उपभुक्तं हरिज्ञाय, प्रव्रज्यायां दधौ मनः ॥२३१॥ भावज्ञा इव तत्कालमेत्य लोकान्तिकामराः । पावं विज्ञापयामासुर्नाथ तीर्थ प्रवर्तय ।।२३२॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व, ६ सर्ग ३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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