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________________ ४८६ उद्धार] भगवान् श्री पार्श्वनाथ जाति के भवन वासी देवों में धरणेन्द्र नाम का इन्द्र हुआ ।' इस तरह प्रभु की कृपा से नाग का उद्धार हो गया । पार्श्वकुमार के ज्ञान और विवेक की सब लोग मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगे। इस तापस की प्रतिष्ठा कम होगई और लोग उसे धिक्कारने लगे । तापस मन ही मन पार्श्वकुमार पर बहुत जलने लगा पर कुछ कर न सका । अन्त में अज्ञान-तप से आयु पूर्ण कर वह असुर-कुमारों में मेघमाली नाम का देव हुआ । वैराग्य और मुनि-दीक्षा तीर्थकर स्वयंबुद्ध (स्वतः बोधप्राप्त) होते हैं, इस बात को जानते हुए भी कुछ आचार्यों ने पार्श्वनाथ के चरित्र का चित्रण करते हुए उनके वैराग्य में बाह्य कारणों का उल्लेख किया है । जैसे 'चउपन महापुरुष चरियं' के कर्ता आचार्य शीलांक, 'सिरि पास नाह चरियं' के रचयिता, देव भद्र सरि और 'पार्श्वचरित्र' के लेखक भावदेव तथा हेम विजयगरिण ने भित्तिचित्रों को देखने से वैराग्य होना बतलाया है। इनके अनुसार उद्यान में घूमने गये हुए पार्श्वकमार को नेमिनाथ के भित्तिचित्र देखने से वैराग्य उत्पन्न हुआ। उत्तरपराण के अनुसार नाग-उद्धार की घटना वैराग्य का कारण नहीं होती, क्योंकि उस समय पार्श्वकुमार सोलह वर्ष से कुछ अधिक बय के थे। जब पार्श्वकुमार तीस वर्ष की प्राय प्राप्त कर चुके तब अयोध्या के भूपति जयसेन ने उनके पास दूत के माध्यम से एक भेंट भेजी । जब पार्श्वकुमार ने अयोध्या की विभूति के लिए पूछा तो दूत ने पहले आदिनाथ का परिचय दिया और फिर अयोध्या के अन्य समाचार बतलाये । ऋषभदेव के त्याग-तपोमय जीवन की बात सुनकर पार्श्व को जातिस्मरण हो पाया। यही वैराग्य का कारण बताया गया है, किन्तु पद्मकीति के अनुसार नाग की घटना इकतीसवें वर्ष में हुई और यही पार्श्व के वैराग्य का मुख्य कारण बनी। महापुराण में पुष्पदन्त ने भी नाग की मृत्यु को पार्श्व के वैराग्यभाव का कारण माना है। १ तत्रेषद्दह्यमानस्य, महाहेभगवान्नृभिः । अदापयन् नमस्कारान्, प्रत्याख्यानं च तत्क्षणम् ।।२२।। नागः समाहितः सोऽपि, तत्प्रतीयेष शुद्धधीः । वीक्ष्यमाणो भगवता, कृपामधुरया दृशा ॥२२६।। नमस्कारप्रभावेण, स्वामिनो दर्शनेन च । विपद्य धरणो नाम, नागराजो बभूव सः ॥२२॥ [त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व ६, सर्ग ३] २ शास्त्र में तीर्थंकर के जन्मतः ३ बतलाये हैं । फिर जातिस्मरण का क्या उपयोग? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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