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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[नाग का झुण्ड भक्त लोग जाते हैं और विभूति का प्रसाद लेकर अपने आपको धन्य और कृतकृत्य मानते हैं । तपस्वी के सिर की फैली हुई लम्बी जटामों के बीच लाललाल आँखें डरावनी-सी प्रतीत हो रही थीं।
पार्श्वकुमार ने अपने अवधिज्ञान से जाना कि धूनी में जो लक्कड़ पड़ा है, उसमें एक बड़ा नाग (उत्तरपुराण के अनुसार नाग-नागिन का जोड़ा) जल रहा है। उसके जलने की घोर आशंका से कुमार का हृदय दयावश द्रवित हो गया। वे मन ही मन सोचने लगे-"अहो ! कैसा अज्ञान है, तप में भी दया नहीं।"
पार्श्वकुमार ने कमठ से कहा-"धर्म का मूल दया है, वह आग के जलाने में किस तरह संभव हो सकती है ? क्योंकि अग्नि प्रज्वलित करने से सब प्रकार के जीवों का विनाश होता है ।। अहो ! यह कैसा धर्म है, जिसमें कि धर्म की मूल दया ही नहीं ? बिना जल के नदी की तरह दया-शून्य धर्म निस्सार है।"
पार्श्वकुमार की बात सुनकर तापस पाग-बबूला हो उठा- "कूमार ! तुम धर्म के विषय में क्या जानते हो? तुम्हारा काम हाथी-घोड़ों से मनोविनोद करना है। धर्म का मर्म तो हम मुनि लोग ही जानते हैं। इतनी बढ़कर बात करते हो तो क्या इस धूनी में कोई जलता हुआ जीव बता सकते हो ?"
यह सुनकर राजकुमार ने सेवकों को अग्निकुण्ड में से लक्कड़ निकालने की आज्ञा दी । लक्कड़ आग से बाहर निकालकर सावधानीपूर्वक चीरा गया तो उसमें से जलता हुआ एक · साँप बाहर निकला । भगवान ने सर्प को पीड़ा से तड़पते हुए देखकर सेवक से नवकार मन्त्र सुनवाया और पच्चक्खाण दिलाकर उसे आर्त-रौद्ररूप दुर्ध्यान के बचाया । शुभ भाव से आयु पूर्ण कर नाग भी नाग
१ (क) तत्थ पुलइयो ईसीसि डज्झमाणो एको महाणागो। तो भयवयाणिययपुरिसवयणेण दवाविप्रो से पंचणमोकारो पच्चखाणं च ।।
- [चउपन्न म० पु० चरियं, पृ० २६२] (ख) नागी नागश्च तच्छेदात्, द्विधा खण्डमुपागती ।।
[उत्तरपुराण, पर्व ७३, श्लोक १०३] (ग) सुमहानुरगस्तस्मात् सहसा निर्जगाम च ॥२२४॥
[त्रिषष्टि शलाका पु० च०, पर्व , सर्ग ३] २ (क) धम्मस्स दयामूलं, सा पुण पज्जालणे कहं सिहियो ।
[सिरि पासनाह चरिउं, ३ । १६६]
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