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________________ ४६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [देशना और उपदेश दिया। आपने प्रथम देशना में फरमाया-"मानवो! प्रनादिकालीन इस संसार में जड़ और चेतन ये दो ही मुख्य पदार्थ हैं । इनमें जड़ तो चेतनाशून्य होने के कारण केवल ज्ञातव्य है। उसका गुण-स्वभाव चेतन द्वारा ही प्रकट होता है । चेतन ही एक ऐसा द्रव्य है, जो ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता, एवं प्रमाता हो सकता है। यह प्रत्येक के स्वानुभव से प्रत्यक्ष है। कर्म के सम्बन्ध में प्रात्मचन्द्र की ज्ञान किरणे आवृत हो रही हैं, उनको ज्ञान-वैराग्य की साधना से प्रकट करना ही मानव का प्रमुख धर्म है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र ही आवरण-मुक्ति का सच्चा मार्ग है, जो श्रुत और चारित्र धर्म के भेद से दो प्रकार का है। कर्मजन्य आवरण और बन्धन काटने का एकमात्र मार्ग धर्म-साधन है । बिना धर्म के जीवन शून्य व सारहीन है, अतः धर्म की आराधना करो। चारित्र धर्म आगार और अनगार के भेद से दो प्रकार का है । चार महाव्रत रूप अनगार-धर्म मुक्ति का अनन्तर कारण है और देश-विरति रूप आगारधर्म परम्परा से मुक्ति दिलाने वाला है। शक्ति के अनुसार इनका पाराधन कर परम तत्त्व की प्राप्ति करना ही मानव-जीवन का चरम और परम लक्ष्य है। इस प्रकार त्याग-वैराग्यपूर्ण प्रभु की वाणी सुन कर महाराज अश्वसेन विरक्त हुए और पुत्र को राज्य देकर स्वयं प्रवजित हो गये । महारानी वामा देवी, प्रभावती आदि कई नारियों ने भी भगवान की देशना से प्रबद्ध हो पार्हतीदीक्षा स्वीकार की । प्रभु के प्रोजपूर्ण उपदेश से प्रभावित हो कर शुभदत्त आदि वेदपाठी विद्वान भी प्रभ की सेवा में दीक्षित हए और पार्श्व प्रभ से त्रिपदी का ज्ञान पाकर वे चतुर्दश पर्वो के ज्ञाता एवं गणधर पद के अधिकारी बन गये। इस प्रकार पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना की और भावतीर्थकर कहलाये। पाव के गणधर समवायांग और कल्पसूत्र में पार्श्वनाथ के पाठ गणधर बतलाये हैं। जबकि आवश्यक नियुक्ति एवं तिलोयपन्नत्ती आदि ग्रन्थों में दश गणधरों का उल्लेख है। इस संख्याभेद के सम्बन्ध में कल्पसूत्र के टीकाकार उपाध्याय १ पासस्स णं अरहो पुरिसादारणीयस्स अट्ठगणा, अट्ठ गणहरा हुत्या तंजहाः सुभेय, प्रज्जघोसेय, बसिठे बंभयारि य । सोमे सिरिहरे चेव, वीरभद्दे जसे विय ।। २ प्रार्यदत्त, प्रार्यघोषो वशिष्ठो ब्रह्मनामकः । सोमश्च श्रीधरो वारिषेणो भद्रयशो जयः ।। विजयश्चेति नामानो, दशैते पुरुषोत्तमाः । पास. च. ५१४३७।२८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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