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________________ की ओर मोड़ने का यत्न] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३७५ शीतल जल के उपचार और व्यजनादि से उसको होश में लाने का प्रयास किया तो होश में आते ही राजीमती बड़ा हृदयद्रावी करुण-विलाप करते हुए बोली"कहाँ त्रिभवनतिलक नेमिकुमार और कहां मैं हतभागिनी! मुझे तो स्वप्न में भी पाशा नहीं थी कि नेमिकुमार जैसा नरशिरोमणि मुझे वर रूप में प्राप्त होगा । पर मो निर्मोही ! तुमने विवाह की स्वीकृति देकर मेरे मन में प्राशा लता अंकुरित क्यों की पौर असमय में ही उसे उखाड़ कर क्यों फेंक दिया ?" "महापुरुष अपने वचन को जीवन भर निभाते हैं। यदि मैं आपको अपने अनरूप नहीं झुंची तो पहले मेरे साथ विवाह की स्वीकृति ही क्यों दी? जिस दिन आपने वचन से मुझे स्वीकार किया, उसी दिन मेरा आपके साथ पाणिग्रहण हो चुका, उसके बाद यह विवाह-मण्डप-रचना और विवाह का समस्त प्रायोजन तो व्यर्थ ही किया गया। नाथ ! मुझे सबसे बड़ा दुःख तो इस बात का है कि आप जैसे समर्थ महापुरुष भी वचन-भंग करेंगे तो सारी लौकिक मर्यादाएं विनष्ट हो जायेंगी। प्राणेश! इसमें प्रापका कोई दोष नहीं, मझे तो यह सब मेरे ही किसी घोर पाप का प्रतिफल प्रतीत होता है । अवश्य ही मैंने पूर्व-जन्म में किसी चिरप्रणयी मिथुन का विछोह कर उसे विरह की वीभत्स ज्वाला में जलाया है। उसी जघन्य पाप के फलस्वरूप में हतभागिनी अपने प्राणाधार प्रियतम के करस्पर्श का भी सुखानुभव नहीं कर सकी।" इस प्रकार पत्थर को भी पिघला देने वाले करुण-क्रन्दन से विह्वल राजीमती ने हृदय के हार एवं कर-कंकणों को तोड़कर टुकड़े २ कर डाला और अपने वक्षःस्थल पर अपने ही हाथों से प्रहार करने लगी। सखियों ने राजीमती की यह दशा देखकर उसे समझाने का प्रयास करते हुए कहा-"नहीं, नहीं, राजदुलारी ! ऐसा न करो, उस निर्दयी नेमिकुमार से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ? उस मायावी से अब तुम्हें मतलब ही क्या है ? वह तो लोक-व्यवहार से विमुख, गृहस्थ-जीवन से सदा डरने वाला और स्नेह से अनभिज्ञ केवल मानव-वसति में मा बसे वनवासी प्राणी की तरह है । ससि! यदि वह चातुर्य-गणविहीन, निष्ठर, स्वेच्छाचारी और तुम्हारा शत्रु चला गया है तो जाने दो। यह तो खुशी की बात है कि विवाह होने से पहले ही उसके लक्षण प्रकट हो गये । यदि विवाह कर लेने के पश्चात् इस तरह ममत्वहीन हो जाता तो तुम्हारी दमा अन्धकूप में ढकेल देने जैसी हो जाती । सुघ्र ! अब तुम उस निष्ठुर को भूल जामो। तुम अभी तक कुमारी हो, क्योंकि उस मेमि कुमार को तो तुम केवल संकल्प मात्र से वाग्दान में ही दी गई हो। प्रद्युम्न, शाम्ब प्रादि एक से एक बढ़कर सुन्दर, सशक्त, सर्वगुणसम्पन्न अनेक यादवकुमार है, उनमें से अपनी इच्छानुसार किसी एक को अपना वर चुन लो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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