________________
३७४
जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ रा० द्वारा ने० को भागमार्ग
पर चलते २ प्रत्यन्त वृद्ध और निर्बल पथिक की तरह थककर चूर-चूर हो चुका हूँ, अतः मैं असह्य दु:ख का अनुभव कर रहा हूँ। मैं अपने लिए, आप लोगों के लिए और संसार के समस्त प्राणियों के लिए परम शान्ति का प्रशस्त मार्ग ढूंढने को लालायित हूँ। मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि अब इस अनन्त दुःख के मूलभूत कर्मों का समूलोच्छेद करके ही दम लूंगा। बिना संयम ग्रहण किये कर्मों को ध्वस्त कर देना संभव नहीं, अतः मुझे अब निश्चित रूप से प्रव्रजित होना है । आप लोग वृधा ही बाधा न डालें ।"
नेमकुमार की बात सुनकर समुद्रविजय ने कहा- " वत्स ! गर्भ में प्रवतीर्ण होने के समय से श्राज तक तुम ऐश्वर्यसम्पन्न रहे हो, तुम्हारा भोग भोगने योग्य यह सुकुमार शरीर ग्रीष्मकालीन घोर प्रातप, शिशिरकाल की ठिठुरा देने वाली ठंड और क्षुधा पिपासा श्रादि प्रसह्य दुःखों को सहने में किस तरह समर्थ होगा ?"
नेमिकुमार ने कहा- "तात ! जो लोग नर्कों के उत्तरोत्तर घोरातिघोर दुःखों को जानते हैं, उनके सम्मुख श्रापके द्वारा गिनाये गये ये दुःख तो नगण्य और नहीं के बराबर हैं । तात ! इन तपश्चरण सम्बन्धी दुःखों को सहने से कर्मसमूह जलकर भस्मावशेष हो जाते हैं एवं प्रक्षय - अनन्त सुखस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है, पर विषयजन्य सुखों से नर्क के अनन्त दारुण दुःखों की प्राप्ति होती है । अतः प्राप स्वयं ही विचार कर फरमाइये कि मनुष्य को इन दोनों में से कौनसा मार्ग चुनना चाहिए ?"
नेमकुमार के इस प्राध्यात्मिक चिंतन से प्रोतप्रोत शाश्वत सत्य उत्तर को सुनकर सब यदुश्रेष्ठ निरुत्तर हो गये। सबको यह दृढ़ विश्वास हो गया कि अब नेमकुमार निश्चित रूप से प्रव्रजित होंगे। सबकी प्रां प्रजस प्रश्रुधाराएं प्रवाहित कर रही थीं । नेमिनाथ ने भ्रात्मीयों की स्नेहमयी लोहट खलानों के प्रगाढ़ बन्धनों को एक ही झटके में तोड़ डाला और सारथी को हाथी हाँकने की आज्ञा दे तत्काल अपने निवास स्थान पर चले प्राये ।
उपयुक्त अवसर देख लोकान्तिक देव नेमिनाथ के समक्ष प्रकट हुए मौर उन्होंने प्राञ्जलिपूर्वक प्रभु से प्रार्थना की- "प्रभो ! भव धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन कीजिये ।" लोकान्तिक देवों को भ्राश्वस्त कर प्रभु ने उन्हें ससम्मान विदा किया मीर इन्द्र की प्राज्ञा से जृम्भक देवों द्वारा द्रव्यों से भरे हुए भण्डार में से वर्ष भर दान देते रहे ।
उधर अपने प्राणेश्वर नेमिकुमार के लौट जाने और उनके द्वारा प्रवजित होने के निश्चय का संवाद सुनते ही राजीमती वृक्ष से काटी गई लता की तरह निश्चेष्ट हो धरणी पर धड़ाम से गिर पड़ी। शोकाकुल सखियों ने सुगन्धित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org