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की मोर मोड़ने का बल]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
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- मांखों से अनवरत प्रश्रुधारा बहाते हुए समुद्रविजय और माता शिवा ने बड़े दुलार से अनुनयपूर्वक कहा-"वत्स ! तुम अचानक ही इस मंगल-महोत्सव से मुख मोड़ कर कहां जा रहे हो?"
विरक्त नेमिकुमार ने कहा-"अम्ब-तात ! जिस प्रकार ये पशु-पक्षी बन्धनों से बंधे हए थे, उसी प्रकार आप और हम सब भी कर्मों के प्रगाढ़ बन्धन
बन्धे हुए हैं। जिस प्रकार मैंने इन पशु-पक्षियों को बन्धनमुक्त कर दिया, उसी कार में अब अपने पापको कर्म-बन्धन से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त करने हेतु कर्म-बन्धन काटने वाली शिव-सुख प्रदायिनी दीक्षा ग्रहण करूंगा।"
नेमिकमार के मख से दीक्षा ग्रहण को बात सुनते ही माता शिवादेवी और महाराज समुद्रविजय मूच्छित हो गये एवं समस्त यादव-परिवार की आँखें रोते-रोते लाल हो गई। श्रीकृष्ण ने सबको ढाढस बंधाते हुए नेमिकुमार से कहा-"भ्रात ! तुम तो हम सबके परम माननीय रहे हो, हर समय तुमने भी हमारा बड़ा मान रखा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम्हारा सौन्दर्य त्रैलोक्य में अनुपम है और तुम अभिनव यौवन के धनी हो, राजकुमारी राजीमती भी पूर्णरूपेण तुम्हारे ही अनुरूप है, ऐसी दशा में तुम्हारे इस असामयिक वैराग्य का क्या कारण है.? अब रही पशु-पक्षियों की हिंसा की बात, तो उनको तुमने मुक्त कर दिया है। तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो गई, अब माता-पिता और हम सब प्रियजनों के प्रभिलषित मनोरथ को पूर्ण करो।"
"साधारण मानव भी अपने माता-पिता को प्रसन्न रखने का प्रयास करता है, फिर आप तो महान पुरुष हैं। आपको अपने इन शोक-सागर में डूबे हुए माता-पिता की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार आपने इन दीन पशु-पक्षियों को प्राणदान देकर प्रमुदित कर दिया उसी प्रकार इन प्रियबन्धुबान्धवों को भी अपने विवाह के सुन्दर दृश्य का दर्शन कराकर प्रसन्न कर दीजिये।"
अरिष्टनेमि ने कहा- "चक्रपाणे ! माता-पिता और आप सब सज्जनों के दुःख का कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। देव-मनुष्य-नरक और तिर्यंच गति में पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्कर में फंसा हुआ प्राणी अनन्त, असह्य दुःख पाता है । यही मेरे वैराग्य का मुख्य कारण है । अनन्त जन्मों में अनन्त मातापिता, पुत्र और बन्धु-बान्धवादि हो गये, पर कोई किसी के दुःख को नहीं बँटा सका । अपने-अपने कृत-कर्मों के दारुण विपाक सभी को स्वयमेव भोगने पड़ते है। यदि पुत्रों को देखने से माता-पिता को आनन्दानुभव होता है तो महानेमि बादि मेरे भाई हैं, अतः मेरे न रहने पर भी माता-पिता के इस प्रानन्द में किसी हार की कमी नहीं पायेगी। हरे ! मैं तो संसार के इस बिना ओर-छोर के पथ
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