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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[निष्क्रमणोत्सव
इतना सुनते ही राजीमती ऋद्धा बाघिनी की तरह अपनी सखियों पर गरज पड़ी-"हमारे निष्कलंक कुल पर काला धब्बा लगाने जैसी तुम यह कैसी बात करती हो? मेरे प्राणनाथ नेमि तीनों लोक में सर्वोत्कृष्ट नररत्न हैं, भला बताओ तो सही, कोई है ऐसा जो उनकी तुलना कर सके ? क्षण भर के लिए मानलो अगर कोई है भी, तो मुझे उससे क्या प्रयोजन, कन्या एक बार ही दी जाती है।"
"वष्णि कुमारों में से उनका ही मैंने अपने मन और वचन से वरण किया है, और अपने गुरुजनों द्वारा भी उन्हें दी जा चुकी हैं, अत: मैं तो अपने प्रियतम नेमिकुमार की पत्नी हो चुकी। तीनों लोकवासियों में सर्वश्रेष्ठ मेरे उस वर ने आज मेरे साथ विवाह नहीं किया है तो मैं भी आज से सब प्रकार के भोगों को तिलाञ्जलि देती हूं। उन्होंने यद्यपि विवाह-विधि से मेरे कर का स्पर्श नहीं किया है पर मुझे व्रतदान देने में तो उनकी वाणी अवश्यमेव मेरे अन्तस्तल का स्पर्श करेगी।"
इस तरह काम-भोग के त्याग एवं व्रत-ग्रहण की दृढ़ प्रतिज्ञा से सहेलियों को चप कर राजीमती अहर्निश भगवान नेमिनाथ के ही ध्यान में निमग्न रहने लगी।
इधर भगवान नेमिनाथ प्रतिदिन दान देते हुए अनेक रंकों को राव बना रहे थे। उन्हें अपने विशिष्ट ज्ञान और लोगों के मख से राजीमती द्वारा की गई भोग-परित्याग की प्रतिज्ञा का पता चल गया था, फिर भी वे पूर्णरूपेण ममत्व से निर्लिप्त रहे।
निष्क्रमणोत्सव एवं दीक्षा वार्षिक दान सम्पन्न होने के पश्चात् मानवों, मानवेन्द्रों, देवों और देवेन्द्रों द्वारा भगवान का निष्क्रमणोत्सव बड़े प्रानन्द और अलौकिक ठाठ-बाट.के साथ सम्पन्न किया गया। उत्तरकुरु नाम की रत्नमयी शिबिका पर भगवान नेमिनाथ आरूढ़ हुए । निष्क्रमणोत्सव में देवों का सहयोग इस प्रकार बताया है-उस पालकी को देवताओं और राजा-महाराजाओं ने उठाया । सनत्कुमारेन्द्र प्रभु पर दिव्य छत्र किये हुए थे। शक्र और ईशानेन्द्र प्रभु के सम्मुख चवर-व्यजन कर रहे थे । माहेन्द्र हाथ में नग्न खङ्ग धारण किये और ब्रह्मन्द्र प्रभु के सम्मुख दर्पण लिये चल रहे थे । लान्तकेन्द्र पूर्ण-कलश लिये, शुक्रेन्द्र हाथ में स्वस्तिक धारण १ सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् । २ नेमिर्जगत्त्रयोत्कृष्टः कोऽन्यस्तत्सदृशो वरः । सहशो वास्तु किं तेन, कन्यादानं सकृत् खलु ।।२३१।।
[त्रिषष्टि शलाका पु० च०, १०८, सर्ग 8]
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