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________________ ३७७ एवं दीक्षा] भगवान् श्री अरिष्टनेमि किये हुए और सहस्रार धनुष की प्रत्यञ्चा पर बाण चढ़ाये हुए प्रभु के आगे चल रहे थे। प्राणतेन्द्र श्रीवत्स, अच्युतेन्द्र, नन्द्यावर्त और चमरादि शेष इन्द्र विविध शस्त्र लिये साथ थे । भगवान् नेमि को दशों दशाह, मातृवर्ग और कृष्णबलराम आदि चारों ओर से घेरे हुए चल रहे थे। इस प्रकार भगवान नेमि के निष्क्रमणोत्सव का वह विशाल जन-समह राजपथ से होता हुआ जब राजीमती के प्रासाद के पास पहुँचा तो एक वर्ष पुराना राजीमती का शोक भगवान् नेमिनाथ को देख कर तत्काल नवीन हो गया और वह मूच्छित होकर गिर पड़ी। देवों और मानवों के जन-सागर से घिरे हुए नेमिनाथ उज्जयंत पर्वत के परम रमरणीय सहस्राम्र उद्यान में पहुंचे और वहां अशोक वृक्ष के नीचे शिबिका से उतर कर उन्होंने अपने सब प्राभरण उतार दिये । इन्द्र ने प्रभु द्वारा उतारे गये वे सब आभूषण श्रीकृष्ण को अर्पित किये। ३०० वर्ष गृहस्थ-पर्याय में रह कर श्रावण शुक्ला ६ के दिन पूर्वाह्न में चन्द्र के साथ चित्रा नक्षत्र के योग में तेले की तपस्या से प्रभु नेमिनाथ ने सुगन्धियों से सुवासित कोमल अाचित केसों का स्वयमेव पंचमष्टि लूञ्चन किया।' शक्र ने प्रभ के केसों को अपने उत्तरीय में लेकर तत्काल क्षीर समुद्र में प्रवाहित किया। जब लुञ्चन कर प्रभु ने सिद्ध-साक्षी से संपूर्ण सावद्य-त्याग रूप प्रतिज्ञा-पाठ का उच्चारण किया, तब इन्द्र-प्राज्ञा ते देवों एवं मानवों का सारा समुदाय पूर्ण शान्त-निस्तब्ध हो गया । प्रभ ने १००० पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। उस समय क्षण भर के लिये नारकीय जीवों को भी सुख प्राप्त हुआ । दीक्षा ग्रहण करते ही प्रभु को मनःपर्यव नामक चौथा ज्ञान भी हो गया। ___ अरिष्टनेमि के दीक्षित होने पर वासुदेव श्रीकृष्ण ने अान्तरिक उद्गार अभिव्यक्त करते हुए कहा-“हे दमीश्वर ! आप शीघ्र ही अपने ईप्सित मनोरथ को प्राप्त करें। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यगचारित्र, तप, शान्ति और मुक्ति के मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ते रहें।" प्रभु द्वारा मुनि-धर्म स्वीकार करने के पश्चात् समस्त देव और देवेन्द्र, दशों दशाह, बलराम-कृष्ण मादि प्रभु अरिष्टनेमि को वन्दन कर अपने-अपने स्थान को लौट गये। [उत्तराध्ययन सूत्र, म० २२] १ ग्रह से सुगन्धगन्धिए, तुरियं मउयकुचिए । सयमेव लुचई केसे, पंचमुट्ठीहिं समाहिरो ॥२४ २ वासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइन्दियं । इच्छियमणोरहं तुरियं, पावसु तं दमीसरा ॥२॥ [उत्तराध्ययन सूत्र, म० २२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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