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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[रथनेमि का राजीवतो
पारगा दूसरे दिन प्रातःकाल प्रभु नेमिनाथ ने सहस्राम्रवन-उद्यान से निकल कर 'गोष्ठ' में 'वरदत्त' नामक ब्राह्मण के यहां अष्टम-तप का परमान से पारण किया। “अहो दानं, अहो दानम्" की दिव्य ध्वनि के साथ देवतामों ने दुन्दुभि बजाई, सुगन्धित जल, पुष्प, दिव्य-वस्त्र और सोनयों की वर्षा, इस तरह पाँच दिव्य वर्षा कर दान की महिमा प्रकट की।
तदनन्तर प्रभु नेमिनाथ ने अपने घातिक कर्मों का क्षय करने के दढ़ संकल्प के साथ कठोर तप और संयम की साधना प्रारम्भ की और वहाँ से अन्य स्थान के लिए विहार कर दिया।
रथनेमि का राजीमती के प्रति मोह अरिष्टनेमि के तोरण से लौट जाने पर भगवान् नेमिनाथ का छोटा भाई रथनेमि राजीमती को देखकर उस पर मोहित हो गया और वह नित्य नई, सुन्दर वस्तुओं की भेंट लेकर राजीमती के पास जाने लगा। रथनेमि के मनोगत कलुषित भावों को नहीं जानते हए राजीमती ने यही समझ कर निषेध नहीं किया-कि "भ्रातृ-स्नेह के कारण मेरे लिए देवर पादर से भेंट लाता है, तो मुझे भी इनका मान रखने के लिए इन वस्तुओं को ग्रहण कर लेना चाहिए।"
उन सौगातों की स्वीकृति का अर्थ रथनेमि ने यह समझा कि उस पर अनुराग होने के कारण ही राजीमती उसके हर उपहार को स्वीकार करती है । इस प्रकार उसकी दुराशा बलवती होने लगी और वह क्षद्रबुद्धि प्रतिदिन राजीमती के घर जाने लगा। भावज होने के कारण वह रथनेमि के साथ बड़ा शिष्ट व्यवहार करती।
एक दिन एकान्त पा रथनेमि ने राजीमती से कहा- "मुग्धे ! मैं तुम्हारे साथ विवाह करना चाहता हूं। इस अनुपम अमूल्य यौवन को व्यर्थ ही बरबाद मत करो। मेरे भैया भोगसुख से नितान्त अनभिज्ञ थे, इसी कारण उन्होंने आप जैसी परम सुकुमार सुन्दरी का परित्याग कर दिया। खैर, जाने दो उस बात को । उनके द्वारा परित्याग करने से तुम्हारा क्या बिगड़ा, वे ही घाटे में रहे कि भोगजन्य सुखों से पूर्णरूपेण वंचित हो गये । उनमें और मुझमें नभ-पाताल जितना अन्तर है । एक ओर तो वे इतने अरसिक कि तुम्हारे द्वारा प्रार्थना करने पर भी उन्होंने तुम्हारे साथ विवाह नहीं किया, दूसरी भोर मेरी गुणग्राहकता पर गम्भीरता से विचार करो कि मैं स्वयं तुम्हें अपनी प्राणेश्वरी, चिरप्रेयसी बनाने के लिए तुम्हारे सम्मख प्रार्थना कर रहा हूं।" १ प्रार्थ्यमानोऽपि नाभूते, स वरो वरवरिणनि ।
अहं प्रार्थयमानस्त्वामस्मि पश्यान्तरं महत् ॥२६४।। [त्रि० श. पु० च०, पर्व ८, सर्ग ६]
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