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________________ के प्रति मोह] भगवान् श्री अरिष्टनेमि रथनेमि की बात सुनकर राजीमती के हृदय पर बड़ा आघात लगा। क्षण भर के लिए वह अवाक सी रह गई। उस सरल स्वभाव वाली विशुद्धहृदया राजीमती की समझ में अब पाया कि वे सारे उपहार इस हीन भावना से ही भेंट किये गये थे। धर्मनिष्ठा राजीमती ने रथनेमि को अनेक प्रकार से समझाया कि यशस्वी हरिवंशीय कुमार के मन में इस प्रकार के हीन विचारों का माना लज्जास्पद है, पर उस भ्रष्ट-बुद्धि रथनेमि पर राजीमती के समझाने का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उसने अपनी दुरभिलाषा को इसलिए नहीं छोड़ा कि निरन्तर के प्रेमपूर्ण व्यवहार से एक न एक दिन वह राजीमती को अपनी भोर आकर्षित करने में सफल हो सकेगा। इस प्रकार की प्राशा लिए उस दिन रथनेमि राजीमती से यह कह कर चला गया कि वह कल फिर पायेगा। रथनेमि के चले जाने पर राजीमती सोचने लगी कि यह संसार का कुटिल काम-व्यापार कितना परिणत है। कामान्ध और पथभ्रष्ट रथनेमि को सही राह पर लाने के लिए कोई न कोई प्रभावोत्पादक उपाय किया जाना. चाहिए। वह बड़ी देर तक विचारमग्न रही और अन्त में उसने एक अद्भुत उपाय ढूढं ही निकाला। राजीमती ने दूसरे दिन रथनेमि के अपने यहां आने से पहले ही भरपेट दूध पिया और उसके आने के पश्चात् वमनकारक मदनफल को नासा-रन्ध्रों से छकर सूघा ओर रथनेमि से कहा कि शीघ्र ही एक स्वर्ग-थाल ले आओ। रथनेमि ने तत्काल राजीमती के सामने सुन्दर स्वर्ण पात्र रख दिया। राजीमती ने पहले पिये हुए दूध का उस स्वर्ण-पात्र में वमन कर दिया और रथनेमि से गम्भीर दृढ़ स्वर में कहा-"देवर ! इस दूध को पी जामो।" रथनेमि ने हकलाते हुए कहा-"क्या मुझे कुत्ता समझ रखा है, जो इस वमन किये हुए दूध को पीने के लिए कह रही हो?" राजीमती ने जिज्ञासा के स्वर में कहा-“रथनेमि ! क्या तुम भी जानते हो कि यह वमन किया हुआ दूध पीने योग्य नहीं है ?" रथनेमि ने उत्तर दिया-“वाह खूब ! केवल मैं ही क्या, मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी वमन की हुई हर वस्तु को अग्राह्य, अपेय एवं अभक्ष्य जानता और मानता है।" राजीमती ने कठोर स्वर में कहा- "अरे रथनेमि ! यदि तुम यह जानते हो कि वमन की हुई वस्तु अपेय और अभोग्य है-खाने-पीने और उपभोग करने योग्य नहीं है, तो फिर मेरा उपभोग करना क्यों चाहते हो ? मैं भी तो वमन की हुई हूँ। उन महान् अलौकिक पुरुष के भाई होकर भी तुम्हें अपनी इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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