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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ समवसरण और
घृणित इच्छा के लिए लज्जा नहीं आती ? सावधान ! भविष्य में कभी ऐसी गहित घृणित और नारकीय आयु का बन्ध करने वाली बात मुंह से न निकालना 19"
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राजीमती की इस युक्तिपूर्ण फटकार से रथनेमि बड़ा लज्जित हुआ । उसके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल सका। उसके सारे कलुषित मनोरथ मिट्टी में मिल गये और वह उन्मना हो अपना-सा मुंह लिए अपने घर लौट गया । उसने फिर कभी राजीमती के प्रासाद की ओर मुंह करने का भी साहस नहीं किया ।
कुछ समय पश्चात् रथनेमि विरक्त हुए और दीक्षित होकर भगवान् नेमिनाथ की सेवा में रेवताचल की ओर निकल पड़े ।
केवलज्ञान
प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् चौवन (५४) दिन तक विविध प्रकार के तप करते हुए प्रभु उज्जयंतगिरि-रेवतगिरि पधारे और वहीं अष्टम-प से ध्यानस्थ हो गये । एक रात्रि की प्रतिमा से शुक्ल-ध्यान की अग्नि में मो नीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि घाति-कर्मों का क्षय कर आश्विन कृष्णामावस्या को पूर्वाह्न काल में, चित्रा नक्षत्र के योग में उन्होंने केवलज्ञान प्रौर केवलदर्शन की प्राप्ति की ।
समवसरण और प्रथम देशना
भगवान् अरिष्टनेमि को केवलज्ञान की प्राप्ति होते ही देवेन्द्रों के सन चलायमान हुए । देवेन्द्र तत्क्षरग अपने देव - देवी समाज के साथ रैवतक पर्वत पर सहस्रास्र वन में आये और भगवान् के चरणों में भक्तिसहित वन्दन कर उन्होंने अनुपम समवसरण की रचना की । उस समय सारा रेवताचल देव-देवियों की कमनीय कान्ति से जगमगा उठा । वहां के रक्षक यह सब अदृष्टपूर्व दृश्य देखकर बड़े विस्मित हुए और तत्क्षरण कृष्ण के पास जाकर उन्हें अरिष्टनेमि के समसरण एवं देव - देवियों के आगमन का सारा हाल कह सुनाया ।
श्रीकृष्ण ने परम प्रसन्न हो उन रक्षक पुरुषों को साढ़े बारह करोड़ रौप्य मुद्रा ( रुपयों) का पारितोषिक प्रदान कर भगवान् नेमिनाथ के प्रति अपनी अपूर्व श्रद्धा और निष्ठा का परिचय दिया ।
१ तस्य भ्रातापि भूत्वा त्वं कथमेवं चिकीर्षसि । मातः परमिदंवा दीर्नरकायुनिबन्धनम् ।।२७२।।
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[त्रि० श० पु० च०, पर्व ८, स०]
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