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________________ ३८१ प्रथम देलना] भगवान् श्री परिष्टनेमि तदनन्तर श्रीकृष्ण अपने श्रेष्ठ हाथी पर मारूढ़ हो दशों दशा), शिवा, रोहिणी और देवकी आदि माताओं तथा बलभद्र आदि भाइयों, एक करोड़ यादव कुमारों एवं समस्त अन्तःपुर और सोलह हजार राजाओं के साथ अर्द्ध चक्री की समस्त समृद्धि से सुशोभित हो भगवान् नेमिनाथ के समवसरण की ओर चल पड़े। समवसरण को देखते ही श्रीकृष्ण आदि अपने-२ वाहनों से उतर पड़े और राजचिह्नों को वहीं रखकर सबने समवसरण के उत्तर द्वार से भीतर प्रवेश किया। अष्ट महाप्रातिहार्यों में सुशोभित प्रभु एक अलौकिक स्फटिक सिंहासन पर पूर्वाभिमुख विराजमान थे। प्रभु का मुखारविन्द तीर्थकर के विशिष्ट अतिथियों के कारण चारों ही दिशाओं में यथावत् समान रूप से दिख रहा था। प्रभु की प्रदक्षिणा और भक्तिसहित विधिवत् वन्दना के पश्चात् श्रीकृष्ण और अन्य सब यथास्थान बैठ गये। इन्द्र और श्रीकृष्ण ने बड़े भक्तिभाव से प्रभु की स्तुति की। तदनन्तर प्रभु नेमिनाथ ने सबकी समझ में आने वाली भाषा में भव्यों के प्रज्ञान-तिमिर का विनाश कर ज्ञान का परम प्रकाश प्रकट करने वाली देशना दी। तीर्थ-स्थापना प्रभु की ज्ञान-विरागपूर्ण देशना सुन कर सर्वप्रथम 'वरदत्त' नामक नृपति ने संसार से विरक्त हो तत्क्षण प्रभु-चरणों में दीक्षित होने की प्रार्थना की। - भगवान् नेमिनाथ ने भी योग्य समझ कर वरदत्त को दीक्षा दी। उसी समय श्रीकृष्ण ने नमस्कार कर प्रभु से पूछा-"प्रभो ! यों तो प्रत्येक प्राणी का भापके प्रति अनुराग है, पर राजीमती का पापके प्रति सबसे अधिक अनुराग क्यों है ?" उत्तर में प्रभु ने राजीमती के साथ अपने पूर्व के पाठ भवों के सम्बन्धों का विवरण सुनाया। पूर्वभव के इस वृत्तान्त को सुन कर तीन राजाओं को जो समवसरण में आये हुए थे और पूर्वभवों में प्रभु के साथ रहे थे, तत्क्षण जातिस्मरण ज्ञान हो गया और उन्होंने उसी समय प्रभु के पास श्रमरण-दीक्षा स्वीकार कर ली। और भी अनेक मुमुक्षुत्रों ने प्रभु-चरणों में दीक्षा ग्रहण की । इस प्रकार प्रभु के उपदेश को सुन कर विरक्त हुए दो हजार क्षत्रियों ने वरदत्त के पश्चात उसी समय प्रभु की सेवा में दीक्षा ग्रहण की। उन २००१ सद्यःदीक्षित साधुओं में से वरदत्त आदि ग्यारह (११) मनियों को प्रभ ने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिपदी का ज्ञान देकर गणधर-पदों पर नियुक्त किया । त्रिपदी के आधार पर उन मुनियों ने बारह अंगों की रचना की और गणधर कहलाये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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