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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [राजीमती की प्रव्रज्या उसी समय यक्षिणी आदि अनेक राजपुत्रियों ने भी प्रभु-चरणों में दीक्षा ग्रहण की। प्रभु ने यक्षिणी प्रार्या को श्रमणी-संघ की प्रवर्तिनी नियुक्त किया ।
दशों दशा), उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलभद्र व प्रद्युम्न आदि ने प्रभु से श्रावकधर्म स्वीकार किया।'
महारानी शिवादेवी, रोहिणी, देवकी और रुक्मिणी आदि अनेक महिंमाओं ने प्रभु के पास श्राविका-धर्म स्वीकार किया।
इस प्रकार प्रभु ने प्राणिमात्र. के कल्याण के लिए साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की और तीर्थ-स्थापना के कारण प्रभु मरिष्टनेमि भाव-तीर्थकर कहलाये ।
राजीमती की प्रव्रज्या उधर राजीमती अपने तन-मन की सुधि भूले रात-दिन नेमिनाथ के चिंतन में ही डूबी रहने लगी । अपने प्रियतम के विरह में उसे एक-एक दिन एकएक वर्ष के समान लम्बा लगता था।
बारह मास तक मपलक प्रतीक्षा के बाद जब राजीमती ने भगवान् अरिष्टनेमि की प्रव्रज्या की बात सुनी तो हर्ष और आनन्द से रहित होकर स्तब्ध हो गई। वह सोचने लगी--"धिक्कार है मेरे जीवन को, जो मैं प्रारणनाथ नेमिनाथ के द्वारा ठुकराई गई है। अब तो उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करना मेरे लिए श्रेयस्कर है । उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण को है तो अब मेरे लिए भी प्रव्रज्या ही हितकारी है।"
किसी तरह माता-पिता की अनुमति लेकर उसने प्रव्रज्या का निश्चय किया एवं अपने सुन्दर-श्यामल बालों का स्वयमेव लुचन कर धैर्य एवं दढ़ निश्चय के साथ वह संयम-मार्ग पर बढ़ चली । लूचित केश वाली जितेन्द्रिया सुकुमारी राजीमती से वासुदेव श्रीकृष्ण प्राशीर्वचन के रूप में बोले-“हे कन्ये! जिस लक्ष्य से दीक्षित हो रही हो, उसकी सफलता के लिए घोर संसार-सागर १ दशार्हा उग्रसेनश्च, वासुदेवश्च लांगली।
प्रद्युम्नाद्याः कुमाराश्च, श्रावकत्वं प्रपेदिरे ॥३७८।। २ शिवा रोहिणीदेवक्यो, रुक्मिण्याचाश्च योषितः । जगृहुः श्राविका-धर्ममन्याश्च स्वामिसनिधी ॥३७॥
[त्रिषष्टि शलाका पुरुष परित्र, पर्व ८, सर्ग १] ३ सोऊण रायवरकन्ना, पवज्ज सा जिस्स उ । णीहासा य गिराणन्दा, सोगेण उ समुत्यिया ॥ [उत्तराध्ययन २० २२, श्लो. २८]
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