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________________ रथनेमि का आकर्षण ] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३८३ को शीघ्रातिशीघ्र पार करना ।" राजीमती ने दीक्षित होकर बहुत सी राजकुमारियों एवं अन्य सखियों को भी दीक्षा प्रदान की । शीलवती होने के साथसाथ नेमिनाथ के प्रति धर्मानुराग से अभ्यास करते हुए राजीमती बहुश्रुता भी हो गई थीं । भगवान् नेमिनाथ को चौवन दिन के छद्मस्थकाल के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वे रेवताचल पर विराजमान थे, अतः साध्वी राजीमती अनेक साध्वियों के साथ भगवान् को वन्दन करने के लिए रेवतगिरि की ओर चल पड़ीं । अकस्मात् आकाश में उमड़-घुमड़ कर घटाएँ घिर आई और वर्षा होने लगी, जिससे मार्गस्थ साध्वियां भीग गईं । वर्षा से बचने के लिए सब साध्वियाँ इधर-उधर गुफाओं में चली गईं। राजीमती भी पास की एक गुफा में पहुँची, जिसे आज भी लोग राजीमती - गुफा कहते हैं । उसको यह ज्ञात नहीं था कि इस गुफा में पहले से ही रथनेमि बैठे हुए हैं। उसने अपने भीगे कपड़े उतार कर सुखाने के लिए फैलाये । रथनेमि का आकर्षण नग्नावस्था में राजीमती को देख कर रथनेमि का मन विचलित हो उठा । उधर राजीमती ने रथनेमि को सामने ही खड़े देखा तो वह सहसा भयभीत हो गईं । उसको भयभीत और काँपती हुई देख कर रथनेमि बोले- "हे भद्रे ! मैं वही तेरा अनन्योपासक रथनेमि हूँ । हे सुरूपे ! मुझे अब भी स्वीकार करो । हे चारुलोचने ! तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। संयोग से ऐसा सुअवसर हाथ आया है । आओ, जरा इन्द्रिय सुखों का भोग करलें । मनुष्य जन्म बहुत दुर्लभ है । अत: भुक्तभोगी होकर फिर जिनराज के मार्ग का अनुसरण करेंगे । रथनेमि को इस प्रकार भग्नचित्त और मोह से पथभ्रष्ट होते देख कर राजीमती ने निर्भय होकर अपने आपका संवरण किया और नियमों में सुस्थिर होकर कुल जाति के गौरव को सुरक्षित रखते हुए वह बोली - " रथनेमि ! तुम तो साधारण पुरुष हो, यदि रूप से वैश्रमण देव और सुन्दरता में नलकूबर तथा साक्षात् इन्द्र भी प्रा जायँ तो भी मैं उन्हें नहीं चाहूँगी, क्योंकि हम कुलवती हैं । नाग जाति में अगंधन कुल के सर्प होते हैं, जो जलती हुई ग्राग में गिरना स्वीकार करते हैं, किन्तु वमन किये हुए विष को कभी वापिस नहीं लेते । फिर तुम तो उत्तम कुल के मानव हो, क्या त्यागे हुए विषयों को फिर से ग्रहण करोगे ? तुम्हें इस विपरीत मार्ग पर चलते लज्जा नहीं आती ? रथनेमि तुम्हें धिक्कार है । इस प्रकार अंगीकृत व्रत से गिरने की अपेक्षा तो तुम्हारा मरण श्रेष्ठ है । " २ [उ० सू० अ० २२] १ संसार सायरं घोरं तर कन्ने लहुं लहुं । २ धिरस्तु तेऽजसोकामी, जो तं जीविय कारणा । वंतं इच्छसि श्रावेउं, सेयं ते मरणं भवे ||७|| Jain Education International [ दशवेकालिक सूत्र, प्र० २] उत्त० २२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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