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________________ भ० अरि० के समय का महान् आश्चर्य ] भगवान् श्री श्ररिष्टनेमि समस्त लोकालोक को हस्तामलक के समान देखने वाले मुनि ढंढर स्पंडल भूमि से प्रभु की सेवा में लौटे और भगवान् नेमिनाथ को वन्दन कर वे प्रभु की केवली -परिषद में बैठ गये । ४०१ ढंढण मुनि ने केवल अन्तराय ही नहीं, चारों घाती कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त किया और फिर सकल कर्म क्षय कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गये । भगवान् श्ररिष्टनेमि के समय का महान् श्राश्चर्य श्री कृष्ण का यादवों की ही तरह पाण्डवों के प्रति भी पूर्ण वात्सल्य था । वे सबके सुख-दुःख में सहायक होकर सब की प्रतिपालना करते । श्री कृष्ण की छत्रछाया में पाण्डव इन्द्रप्रस्थ में बड़े आनन्द से राज्यश्री का उपभोग कर रहे थे । एक समय नेमिनारद इन्द्रप्रस्थ नगर में प्राये और महारानी द्रौपदी के भव्य प्रासाद में जा पहुँचे । पाण्डवों ने नारद का सत्कार किया, पर द्रौपदी ने नारद को अविरति समझ कर विशेष प्रदर-सत्कार नहीं दिया । नारद क्रुद्ध हो मन ही मन द्रौपदी का कुछ अनिष्ट करने की सोचते हुए वहाँ से चले गये । वे यह भली प्रकार जानते थे कि पाण्डवों पर श्रीकृष्ण की असीम कृपा के कारण भरतखण्ड में कृष्ण के भय से कोई द्रौपदी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकता, अत: द्रौपदी के लिये अनिष्टप्रद कुछ प्रपञ्च खड़ा करने की उधेड़-बुन में वे धातकी खण्ड द्वीप के भरतक्षेत्र की प्रमरकंका नगरी में स्त्रीलम्पट पद्मनाभ राजा के राज- प्रासाद में पहुँचे । राजा पद्म ने राजसिंहासन से उठकर नारद का बड़ा सत्कार किया और उन्हें अपने अन्तःपुर में ले गया। उसने वहाँ अपनी सात सौ ( ७०० ) परम सुन्दरी रानियों की ओर इंगित करते हुए नारद से गर्व सहित पूछा - " महर्षे ! आपने विभिन्न द्वीप - द्वीपान्तरों के राज- प्रासादों और बड़े-बड़े अवनिपतियों के अन्तःपुरों को देखा है, पर क्या कहीं इस प्रकार की चारुहासिनी, सर्वांगसुन्दरी स्त्रियों में रत्नतुल्य रमणियाँ देखी हैं ?" अपने अभीप्सित कार्य के सम्पादन का उचित अवसर समझ कर नारद बोले ' - " राजन् ! तुम कूपमण्डूक की तरह बात कर रहे हो । जम्बूद्वीपस्थ भरतखण्ड के हस्तिनापुराधिप पाण्डवों की महारानी द्रौपदी के सामने तुम्हारी ये सब रानियाँ दासियाँ सी लगती हैं ।" यह कहकर नारद वहाँ से चल दिये । द्रौपदी को प्राप्त करने हेतु पद्मनाभ ने तपस्यापूर्वक अपने मित्र देव की आराधना की और देव के प्रकट होने पर उससे द्रौपदी को लाने की १ ज्ञाता धर्म कथा, १।१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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