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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ने० के मुनि में सर्वो० मुनि
भगवान ने फरमाया-"हरे! सभी मनि कठोर साधना करने वाले हैं पर इन सबमें ढंढरण दुष्कर करणी करने वाला है। उसने काफी लम्बा काल अलाभपरिषह को समभाव से सहते हुए अनशन-पूर्वक बिताया है । उसके मन में किंचिन्मात्र भो ग्लानि नहीं. अतः यह सर्वोत्कृष्ट तपस्वी मनि है।"
कृष्ण यह सुन कर बड़े प्रसन्न हए और देशना के पश्चात भगवान नेमिनाथ को वन्दन कर मन ही मन ढंढरण मुनि की प्रशंसा करते हुए अपने राजप्रासाद की ओर लौटे । उन्होंने द्वारिका में प्रवेश करते ही ढंढण मुनि को गोचरी जाते हुए देखा । कृष्ण तत्काल हाथी से उतर पड़े और बड़ी भक्ति से उन्होंने ढंढरण ऋषि को नमस्कार किया।
एक श्रेष्ठी अपने द्वार पर खड़ा-खड़ा यह सब देख रहा था। उसने सोचा कि धन्य है यह मुनि जिनको कृष्ण ने हाथी से उतर कर श्रद्धावनत हो बड़ी भक्ति के साथ वन्दन किया है ।
संयोग से ढंढरण भी भिक्षाटन करते हुए उस श्रेष्ठी के मकान में भिक्षार्थ चले गये । सेठ ने बड़े आदर के साथ ढंढरण मुनि के पात्र में लड्डू बहराये । ढंढरण मुनि भिक्षा लेकर प्रभु की सेवा में पहुँचे और वन्दन कर उन्होंने प्रभु से पूछा--"प्रभो! क्या मेरा अन्तराय कर्म क्षीण हो गया है, जिससे कि मुझे प्राज भिक्षा मिली है ?"
प्रभु ने फरमाया-"ढंढरण मुने! तुम्हारा अन्तराय कर्म अभी क्षीण नहीं हुआ है । हरि के प्रभाव से यह भिक्षा तुम्हें मिली है । हरि ने तुम्हें प्रणाम किया इससे प्रभावित हो श्रेष्ठी ने तुम्हें यह भिक्षा दी है।"
चिरकाल से उपोषित ढंढरण ने अपने मन में भिक्षा के प्रति राग का लेश भी पैदा नहीं होने दिया । “यह भिक्षा अपनी लब्धि नहीं अपितु पर-प्राप्ति है, अतः मुझे इसे एकान्त निर्जीव भूमि में परिष्ठापित कर देना चाहिये" यह सोचकर ढंढण ऋषि स्थंडिल भूमि में उस भिक्षा को परठने चल पड़े । उन्होंने एकान्त में पहुँच कर भूमि को रजोहरण से परिमार्जित किया और वहाँ भिक्षान्न परठने लगे। उस समय उनके अन्तस्तल में शुभ भावों का उद्रेक हुआ । वे स्थिर मन से सोचने लगे -- "प्रोह ! उपाजित कर्मों को क्षय करना कितना दुस्साध्य है। प्राणो मोह में फँसकर दुष्कृत करते समय यह नहीं सोचता कि इन दुप्कृतों का परिणाम मुझे एक न एक दिन भोगना ही पड़ेगा।" ।
इस प्रकार विचार करते २ उनका चिन्तन शुभ-ध्यान की उच्चकोटि पर पहुँच गया । शुक्ल-ध्यान की इस प्रक्रिया में उनके चारों घातिक-कर्म नष्ट हो गये और उन्हें केवलज्ञान, केवलदर्शन की प्राप्ति हो गई। तत्क्षण गगनमण्डल देव दुन्दुभियों की ध्वनि से गूंज उठा ।
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